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अर्थात् हे भगवन् | आपका जगततिर धर्म जो विश्वव्यापक नहीं बन पाया है उसके तीन कारण हो सकते हैं- १. या तो यह कलिकाल की महिमा कि इस काल में लोकहितकारी सत्य धर्म का प्रसार कठिन हो गया है । २. उपदेश सुनने वाली जनता का हृदय इतना कलुषित बन गया है कि वह आत्म-कल्याण की ओर रुचि नहीं दिखाता। ३. तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि आप द्वारा प्ररूपित जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने योग्य प्रभावशालिनी वाक्शक्ति जैन वक्ताओं में नहीं रही ।
पूर्वोक्त दो कारणों का सुधार करना तो हमारे हाथ की बात नहीं, क्योंकि कलिकाल को हम किसी तरह बौचा काल नहीं - बना सकते, परन्तु इतना अवश्य है कि इस कलिकाल में सत्यखोजी, भद्रपरिणामी सज्जनों की कमी नहीं है, पर्याप्त जनता सत्य धर्म पर चलने के लिये लालायित है । उसको जैसा मार्ग मिल जाता है उस पर चलने लगती है । यदि कोई प्रचारक उस जनता के समक्ष जैनधर्म के सत्य सिद्धान्तों का ठीक ढंग से प्रचार करे तो इस काल में भी वह भद्र जनता जैनधर्म को हृदय से स्वीकार कर सकती है, आचरण भी कर सकती है । यह बात अवश्य है कि लोग प्रायः मनोरंजन, विषयभोगों की ओर दौड़ते हैं । अपने आहार-विहार, खान-पान पर अधिकतर स्त्री-पुरुष किसी तरह का प्रतिबन्ध लगाना पसन्द नहीं करते । और, जैनधर्म शुरू से ही अभक्ष्य, अशुद्ध पदार्थों के खानपान पर तथा अयोग्य आचरण पर प्रतिबन्ध लगाता है । परन्तु उन स्त्री-पुरुषों की भी संसार में कमी नहीं है जो आत्मकल्याण के लिये ऐसे प्रतिबन्धों का स्वागत करते हैं और सहर्ष उन अच्छे नियन्त्रणों का आचरण करना चाहते हैं ।
अतः धर्म प्रचार के लिये हमको इन तीन कारणों पर ध्यान देते हुए अपनी त्रुटियों का सुधार करना चाहिये। हमको अच्छे 'प्रभावशाली विद्वान् वक्ता तैयार करने चाहिये जिनको विविध भाषाओं का ज्ञान हो, जैन दर्शन के सिवाय अन्य दर्शनों का भी जिनको अच्छा परिज्ञान हो, जिन्हें प्रचार करने की अच्छी शिक्षा दी जाए और जो प्रचार के साधनों से सम्पन्न हों, प्रचार कार्य के लिये उन्हें निराकुल रखा जाए। किन्तु जैन समाज में आज ऐसा एक भी धर्मप्रचारक नहीं है।
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प्राचीन समय में प्रचार कार्य जैन साधुओं के हाथ में था, वे अधिक संख्या में होते थे, सर्वत्र उनका निर्बाध विहार होता था । प्रायः सभी मुनि अनेक विषयों के अच्छे विद्वान् होते थे । सच्चरित्र श्रावक (गृहस्थ जैन) भी सर्वत्र पाये जाते थे । अतः मुनियों को प्रायः सभी ग्रामों, नगरों में यथासमय शुद्ध निर्दोष भोजन मिल जाता था। मुनि यथासमय भोजनचर्या के लिये नगर या ग्राम में आते थे और विधि अनुसार थोड़ा-सा भोजन करके पुनः अपने ध्यान- अध्ययन के लिये एकान्त, शान्त, वन प्रान्त में चले जाते थे। वहां पर शान्ति के साथ कठोर तपस्या करते थे । उस तपस्या के कारण उनको विविध ऋद्धियां-सिद्धियां प्राप्त हो जाती थीं । श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान, वीज ऋद्धि वचनवन वादित्व ऋद्धि अष्टाङ्ग निमित्त ज्ञान, चारणऋद्धिपद विक्रिया, तेजस आदि अनेक प्रभावशालिनी मानसिक, वाचनिक, शारीरिक ऋद्धियां उनको प्राप्त हो जाती थीं, जिनके कारण उनका व्यक्तित्व महान् प्रभावशाली बन जाता था। इसी कारण वे जहां पर भी जाते थे वहां भव्य जनता का मेला लग जाता था। वे मुनि उस जनता का अनुरोध पा कर जो भी प्रभावशाली उपदेश देते थे, उस उपदेश का एक-एक शब्द श्रोताओं के हृदय पर अंकित हो जाता था। सुनने वाले सभी स्त्री-पुरुष गंभीर वाणी में प्रगट होने वाले उनके धर्म-उपदेश के अनुसार मिथ्यात्व अन्याय, अभक्ष्य का त्याग करके जैनधर्म के भक्त बन जाते थे । उनमें से बहुत-से व्यक्ति तत्काल संसार, भोगों और शरीर से विरक्त होकर मुनि दीक्षा ले लेते थे, अनेक व्यक्ति ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी पद की दीक्षा ले लेते थे। जिन स्त्री-पुरुषों में कारणवश विशेष त्याग की क्षमता न होती थी, वे भी कम से कम जैनधर्म का हृदय 'से श्रद्धान व्यवहार कर सम्यग्दृष्टि तो बन ही जाते थे ।
इस तरह प्राचीन समय में जैनधर्म के प्रभावशाली प्रचारक, रत्नत्रय की मूर्ति, अच्छे कुशल विद्वान् मुनिराज होते थे। 'उनकी अटल श्रद्धा, ज्ञान, आचरण का जनता के हृदय पर तत्काल अमिट प्रभाव पड़ा करता था। आज वैसी बात नहीं रही। आज समस्त भारत में केवल ३५-३६ दिगम्बर साधु हैं। उनका भी सर्वत्र स्वतन्त्र विहार संभव नहीं है । अन्य कारणों के सिवाय इस विहार में रुकावट का एक विशेष कारण यह भी है कि सभी स्थानों पर जैन गृहस्थों के घर नहीं पाये जाते । सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां पर जैनों का एक भी घर नहीं है। जहां पर जैनों के घर हैं वहां पर भी शुद्ध खान-पान का अभ्यास न रहने के कारण महाव्रती साधुओं की भोजन विधि तो दूर की बात रही व्रती धावकों ऐनक, जुल्लक, ब्रह्मचारी आदि के भोजन की व्यवस्था भी नहीं हो पाती। ऐसी विकट समस्याओं के कारण मुनियों का सर्वत्र विहार कठिन हो गया है। जहां पर मुनि विहार होता है उन स्थानों पर धर्मप्रचार भी अनायास होता ही है । किन्तु आज की आवश्यकतानुसार बहुत बड़े व्यापक प्रचार की आवश्यकता है । उस व्यापक प्रचार को ये केवल ३५-३६ मुनि पैदल विहार द्वारा नहीं कर सकते । अतः धार्मिक प्रचार कार्य में सबको यथासंभव सहयोग देना चाहिये ।”
( उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ३१६-३२१ )
कालजयी व्यक्तित्व
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