________________
फैलानी चाहिए। अन्य मतानुयायियों को जैनधर्म की तरफ आकर्षित करने के लिए धावकों को दीन दुःखी दरिद्र जनता की सेवा करके उनके उनको जैनधर्म का में जैनधर्म का प्रभाव उत्पन्न करना चाहिए। असहाय विधवाओं, अनाथ बच्चों की रक्षा करके हृदय कल्याणकारी उपदेश देना चाहिए ।"
( उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ४०४) ( २० ) " प्रभावना करना धर्म के लिए नितान्त आवश्यक है। प्रभावना का सीधा-सादा अर्थ यह है कि अपने धर्म की उन्नति, विकास और प्रसार के लिए रथोत्सव करना, बड़े-बड़े विधान करना, प्रतिष्ठा करना, जिससे सहस्रों या लाखों की संख्या में जनता धर्म के बाह्य रूप को देख सके । धर्म के अन्तरंग रहस्य, परिणाम शुद्धि या आत्मिक शान्ति को साधारण जन समाज नहीं समझ सकता है । वैयक्तिक होते हुए भी धर्म को सामूहिक या सामाजिक रूप देना ही प्रभावना है। उत्सव करने से सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों व्यक्ति धर्म की ओर आकृष्ट होते हैं। उत्सव आदि धर्म प्रचार में बड़े सहायक हैं। इनके द्वारा किसी भी धर्म का प्रचार सरलतापूर्वक किया जा सकता है क्योंकि बाह्य रूप को देखकर अधिकांश भावुक व्यक्तियों का धर्म दीक्षित हो जाना या उस धर्म से परिचित हो जाना स्वाभाविक है ।
पुरातन काल में धर्म परिवर्तन के प्रधान साधनों में रथोत्सव, शास्त्रार्थ और मान्त्रिक चमत्कार थे। जो सम्प्रदाय इन कार्यों में प्रवीण होता था, वह अपने धर्म के अनुयायियों की संख्या बढ़ा लेता था । उस काल में राजा के अनुसार ही प्रायः प्रजा का धर्म रहता था । यदि राजा जैन धर्मानुयायी है तो उसकी प्रजा भी प्रसन्नता से इसी धर्म की अनुयायी बन जाती थी और कालान्तर में उसी राजा के शैव धर्मानुयायी हो जाने पर प्रजा को भी शैवधर्म ग्रहण करना पड़ता था। इस प्रकार उस काल में धर्मप्रचारक धर्म के बाह्य रूपों को जनता के सामने रखते रहते थे ।
वर्तमान में भी रथोत्सव, पूजा, प्रतिष्ठा आदि प्रभावना के कार्यों की बड़ी आवश्यकता है। इन कार्यों के द्वारा जनता में धार्मिक अभिरुचि उत्पन्न की जाती है। जनता किसी भी धर्म को जान सकती है तथा उसकी ओर आकृष्ट भी हो सकती है । आज पूजा, प्रतिष्ठा के अलावा भी जैन शस्त्रों को छपवाकर बांटना, जिससे सर्वसाधारण जैन धर्म के तत्त्वों से अवगत हो, प्रभावना का कार्य है । इस कार्य के द्वारा प्रभावना तो होती है, पर पुण्य का भी महान् बन्ध होता है, क्योंकि शास्त्रों के अध्ययन द्वारा अनेक व्यक्ति अपने आचरण को सुधार सकते हैं, अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं तथा असत् मार्ग से हट कर सत् मार्ग में लग सकते हैं । अतः प्रभावना से पुण्यार्जन होता है, जिससे जीव को परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
धन पाकर जो व्यक्ति धन का व्यय नहीं करता है, केवल अपने भोग-विलास को ही सब कुछ समझता है, उसी में मस्त रहता है, वह व्यक्ति निम्न कोटि का है। उसका जीवन पशुवत् है, क्योंकि खाना-पीना यही संकुचित क्षेत्र उसके जीवन का है। मनुष्य जन्म को प्राप्त कर जिसने अपने अभीष्ट धर्म का उद्योत नहीं किया तथा अपने अर्जित धन में से मानव कल्याण में कुछ नहीं लगाया, उसका जीवन निरर्थक है । नीतिकारों ने ऐसे व्यक्ति की बड़ी भारी निन्दा की है।
प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है कि वह अपनी कमाई का आठवां या दसवां भाग दान में अवश्य खर्च करे । आज के में मन्दिर युग बनवाने या प्रतिष्ठा करवाने की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी ज्ञानदान और जैन साहित्य के प्रचार की है । मन्दिर इस समय पर्याप्त संख्या में प्रत्येक नगर में वर्तमान हैं। अधिक मन्दिर रहने से उनकी व्यवस्था भी ठीक नहीं हो पाती है। अतः अब प्रभावना के लिए मन्दिर की आवश्यकता नहीं । रथोत्सव आदि प्रभावना के लिए आज भी उपयोगी हैं, पर इनको भी संभाल कर करना चाहिए। प्रभावना का ठोस कार्य जितना साहित्य के प्रचार या शिक्षा द्वारा हो सकता है, उतना रथोत्सव आदि से नहीं । साहित्य के प्रचार से जैनधर्म का यथार्थ बोध जनता कर सकती है तथा जैनधर्म के मौलिक आध्यात्मिक तत्त्वों का मनन कर सकती है। जैनधर्म आचार और विचार दोनों की ही दृष्टि से सर्वसाधारण को अपनी ओर आकृष्ट करने वाला है तथा इनके मनन, चिन्तन द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपना कल्याण कर सकता है । अतः प्रत्येक श्रावक को दान अवश्य करना चाहिए ।" (रत्नाकर शतक, द्वितीय भाग, पृष्ठ ६६- १०० )
(२१) "जैन समाज में आज न ता यथेष्ट जनता को जैनधर्म की ओर झुकाने वाले हैं और इसी कारण जैनधर्म की ओर साधारण जनता का झुकाव नहीं है। जैनधर्म का जनता में अधिक व्यापक प्रचार न हो सकने के विषय में महान् ऋषि श्री समन्तभद्र आचार्य ने अनुभव की बात लिखी है—
५४
Jain Education International
कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनान योवा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥
For Private & Personal Use Only
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
www.jainelibrary.org