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________________ नापियाका जन काल का भी सुधार करे । इस प्रकार लोक-सेवा और सुधार में ही अपना सुधार एवं कल्याण है । मनुष्य का सर्वोच्च धर्म है कि वह जीवों को समान समझकर उनके प्रति दया का व्यवहार करता रहे। बड़ों के प्रति श्रद्धा का एवं बुरों, दुर्बुद्धि और दुर्व्यवहारियों के प्रति चिकित्सक के समान व्यवहार करना आवश्यक है । एकान्त पद्धति के दृष्टिकोण के कारण व्यक्ति हठी, अहंकारी, संकीर्ण विचारों वाला और मनोमालिन्यमय होता जाता था। इसीलिये भगवान महावीर ने एकान्त पद्धति की कड़ी आलोचना की तथा अनेकान्तवाद का पोषण किया, जिसके अनुसार प्रत्येक बात को उदार और विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का उपदेश दिया। उनका कथन था "वस्तु के कण कण को जानो, तब उसके स्वरूप को कहो।' इससे विचार के क्षेत्र में महिष्णुता आई। इस प्रकार अनेकान्तवाद के मूल में है--सत्य की खोज । सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से जानकर स्याद्वाद के कथन द्वारा जीवन के धरातल पर उतरना यही उनका वैशिष्ट्य है। यह एक आध्यात्मिक या बौद्धिक क्रान्ति थी। इसी कारण इसे भारतीय इतिहास में बौद्धिक क्रान्ति के नाम से पुकारा गया है। भगवान महावीर को इन्द्रियों पर विजय करने के कारण "जिन" कहा गया और इनके धर्म को तथा उसके अनुयायियों को जान . कहा जाने लगा। इस क्रान्ति का भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का कोई अंग ऐसा नहीं है जो जैन धर्म के प्रभाव से अछ ता रहा हो । अत: यहां हम संक्षेप में उसका दिग्दर्शन करना आवश्यक समझते हैं। राजनैतिक प्रभाव :-जन धर्म बौद्ध धर्म की अपेक्षा तीव्रता से फैलना प्रारम्भ हुआ।' उत्तर में कन्नौज, गान्धार वल्ख से लेकर दक्षिण में सिंहलद्वीप तक, पश्चिम में सिन्ध, सुराष्ट्र से लेकर पूर्व में अंग, बंग तक सभी स्थानों और जातियों में वह धर्म, व्याप्त हो गया। न केवल भारत में वरन् भारत के बाहर के देशों में भी यह धर्म फैला। महावंश' नामक बौद्ध ग्रंथ से प्रतीत होता है कि ४३७ ई० पूर्व में सिंहलद्वीप के राजा ने अपनी राजधानी अनुरुद्धपुर में जैन मन्दिर व मठ बनवाये थे जो ४०० वर्ष तक कायम रहे। भगवान महावीर के समय से लेकर ईसा की प्रथम शती तक मध्य एशिया और लघु एशिया के अफगानिस्तान, ईरान, ईराक. फिलिस्तीन, सीरिया, मध्य सागर के निकटवर्ती यूनान, मिश्र, ईथोपिया (Ethopia) और एवीसीनिया आदि देशों से जन श्रमणों का सम्बन्ध व सम्पर्क बराबर बना रहा । यूनानी लेखकों के कथन से सिद्ध होता है कि पायेथोगोरस (Pythegorse), पेरहो (Pyrrha). डायजिनेस (Diogenes) जैसे यनानी तत्त्ववेत्ताओं ने भारत में आकर जन श्रमणों से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी। सिकन्दर महान के साथ जाने वाले जैन ऋषि कल्याण के पश्चात् सैकड़ों जन श्रमणों ने उक्त देश में समय-समय पर जाकर अपने धर्म का प्रचार किया और वहां पर अपने मठ बनाकर रहते रहे। कुछ विद्वानों का मत है कि प्रभु ईसा ने इन्हीं श्रमणों से जो कि फिलिस्तीन में मठ बनाकर बहुत बड़ी संख्या में रह रहे थे, अध्यात्म विद्या के रहस्य को सीखा था। भगवान महावीर के समय में ही बिम्बसार, अजातशत्र, उदयन, शतानिक, प्रसेनजित और वैशाली के लिच्छवी शासक जैन धर्म के समर्थक बने । वैशाली (विदेह) में उस समय भी बहुत बड़ी संख्या में जैन थे। उसके उपरान्त महाराजा नन्दवर्द्धन जो कलिंग से जिन मति मगध में लाये थे, जन धर्म के अच्छे उपासक हुए । शिश नाग और नन्द राजाओं ने भी जन धर्म को अपनाया। चन्द्रगस्त मौर्य न केवल जैन धर्म के अनुयायी थे वरन् अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह जैन भिक्षु हो गये थे। उन्होंने भद्रवाह के साथ अकाल के समय जन भिक्ष के रूप में दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था। सम्प्रति, शीलसक मौर्य और वहद्रथ भी जन धर्म के अनयायी थे। जन सम्राट् ऐल खारवेल ने उस मूर्ति को जो महाराजा नन्दवर्द्धन द्वारा ले जाई गई थी, २७५ वर्ष उपरान्त पुष्यमित्र शग को परास्त कर वापिस कलिंग में लाकर पुन: वहाँ पर स्थापित किया। इसी सम्राट् ने शकों और यूनानी राजा मनेन्द्र ( मेनेडर) को परास्त कर देश को विदेशियों से मुक्त किया। यहीं यवन सम्राट् मनेन्द्र अपने अन्तिम जीवन में जनधर्म में दीक्षित हो गये थे। क्षत्रप सम्राट नहपान विक्रमादित्य जो जैन धर्म में दीक्षित होकर भूतवलि नामक दिगम्बर जैन आचार्य बन गये थे, ने षट खराडागम शास्त्र की 1. R.C. Majumdar : Ancient India, Chap. V, page 178. 2. Prof. Buhler- An Indian sect of the Jainas, page 37 3. (A) Dr. B.C. Lav-Historical Gleanings, page 42. (B) Sir williams James-Asiatic Researches, Vol. III, page 6. (C) Mogathenes-Ancient India, page 104. (द) बा० कामता प्रसाद-दिगम्बरत्व भोर दिगम्बर मुनि, पृ १११-१३, २४३ ४. पं० सुन्दर लाल-हजरत ईसा और ईसाई धर्म, प० २२. ५. वीर--वर्ष २, पृष्ठ ४४६-४४६. ११८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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