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________________ जैन धर्म और उसका भरतीय सभ्यता और संस्कृति को योगदान डॉ० चमनलाल जैन आज भारतीय इतिहास में जैन और बौद्ध धर्म का उल्लेख ईसा से ६वीं शती पूर्व की धार्मिक क्रान्ति के रूप में साथ-साथ आता है। अतः अधिकांश में यह धारणा बन गई है कि उपर्युक्त दोनों धर्मों का प्रादुर्भाव साथ हुआ था। परन्तु वर्तमान काल में होने वाले अनुसंधानों के आधार पर तथा जैन ग्रन्थों की प्रामाणिक छानबीन मे यह तथ्य स्पष्ट हो गया है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से काफी पूर्व का धर्म है। उसके २४ तीर्थंकरों में से दो-नेमनाथ और पार्श्वनाथ -का होना इतिहास ने स्वीकार कर ही लिया है, अन्य तीर्थकरों को भी शनैः शनैः स्वीकार किया जा रहा है । ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांशनाथ जिनके नाम पर सारनाथ नाम चला आ रहा है तथा महाभारत काल में नेमनाथ का होना सर्वस्वीकृत हो चुका है। पार्श्वनाथ का जन्म ईसा पूर्व ८वीं सदी में काशी में होना और गहन तपस्या में लीन होने के पश्चात् पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति कर "निर्ग्रन्थ" धर्म (जैन धर्म का पूर्वरूप) का प्रचार कर सौ वर्ष के लगभग आयु में मोक्ष प्राप्ति का उल्लेख सुप्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार श्री आर० सी० मज मदार' ने भी किया है । ऋग्वेद व सामवेद में भी जीनियों के प्रथम एवं बाईसवें तीर्थकर श्री ऋषभदेव व अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। अभी हाल की एक खुदाई में हस्तिनापुर में प्राप्त अवशेष भी भगवान् ऋषभदेव की मान्यता की पुष्टि करते हैं । सिन्धु घाटी के उत्खननों और वहाँ की मूर्तियों तथा लिप्याक्षरों को पढ़े जाने के उपरान्त इस धर्म की प्राचीनता उस काल तक स्वीकार की जाने लगी है। कुछ विद्वान तो पहले ही इस धर्म को वैदिक धर्म से भी पूर्व का प्राचीन धर्म होने की सम्भावना को स्वीकार करते थे। अत: जैन धर्म निर्विवाद ही एक स्वतन्त्र धर्म है और इसका अन्य धर्मों के मूलोद्गमों से कोई सम्बन्ध नहीं है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व की स्थिति में भगवान् महावीर का जो उल्लेख इतिहास में आता है वह इसलिये कि उन्होंने तत्कालीन चिन्तनीय सामाजिक और धार्मिक स्थिति में उसे एक नवीन पर्यावरण में प्रस्तुत किया। उस समय देश में अनेक विचारधाराएं काम कर रही थीं। जैसे-देवतावाद, जड़वाद और अध्यात्मवाद । ये धाराएं केवल कर्मकाण्डों, वितण्डावादों और बाह्य चमत्कारों से लिप्त थीं। भावनाए संकीर्ण हो चुकी थीं, धर्म के नाम पर हिंसा, विलासिता और शिथिलाचार बढ़ रहा था। मांस, मदिरा और मैथुन में साधारण जनता व्यस्त थी, स्त्री मनुष्य की भोगवस्तु बन चुकी थी, जनता प्रवृत्ति मार्ग पर बहुत आगे बढ़ चुकी थी। यज्ञ-हवन, दान-दक्षिणा से देवी-देवताओं को ब्राह्मणों और पुरोहितों द्वारा खरीदा जा सकता था। कर्मकाण्डों और विश्वासों ने मनुष्य को आत्मविश्वास और पुरुषार्थ से हीन बना कर देवताओं का दास बना दिया था। भगवान् महावीर ने इस दशा से उबारने के निमित्त मनुष्य का दर्जा देवताओं से भी उच्च बताया और उसे उन्नति कर परमात्मा तक बनने का उपदेश दिया । उन्होंने बताया कि मनुष्य का दुःख-सुख देवताओं के अधीन नहीं वरन् उसकी अपनी वृत्तियों के अधीन है । अतः उसे कर्म करने में सावधान रहना चाहिये । अच्छे कर्म करने पर मनुष्य विकास पथ पर अग्रसर हो परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। यह विकास निजी भावों के अतिरिक्त बाह्य द्रव्य, क्षेत्र और काल पर भी निर्भर करता है। निजी भाव और बाहर की स्थिति की प्रतिकूलता में जीव का पतन और अनुकूलता में उत्थान होता है। अतः यह मनुष्य के लिये आवश्यक है कि वह अपने भावों में सुधार के साथ देश १. R.C. Majumdar : Ancient India, 1952 Edition, Chapter V, p. 176. २. ऊँ स्वाति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वतिनः पूषाविश्ववेदा स्वतीनस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमि स्वास्तिनो बृहस्पतिदधातु, ऋग्वेद, अध्याय ६, वर्ग १६, सूत्र २२ ३. सामवेद अध्याय २५, मन्त्र १९ Encyclopaedia of Religion, Vol II. pp. 199-200; Vol VII. p. 472 ४. Eng : जैन इतिहास कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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