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________________ रचना की।' कनिष्क, हुबिष्क और वासदेव आदि शक राजाओं के समय में भी जैन धर्म की मान्यता बहुत थी। रुद्रसिंह, अमोघवर्ष, जयसिंह, सिद्धराज सभी ने जैन धर्म को प्रमुख मान्यता प्रदान की। गुजरात का प्रतापी शासक कुमारपाल जिनके आचार्य हेमचन्द्र जैसे जैन विद्वान गुरू रहे, जैन धर्म के अनन्य उपासक थे। आपने अपने शासन में सम्पूर्ण साम्राज्य से मांस, मदिरा आदि का निषेध करा दिया। दक्षिण में तो जैन धर्म और तीव्रता से फैला। वहाँ के कदम्ब, चेर, चोल, पांड्य, गंग, होयसाल आदि राजवंशों में अनेक प्रसिद्ध जन शासक हुए। यहां के जन सेनापति और दंडनायक जसे श्री विजय, चामुडराय, गंगराज और हल्ल ने भी भारतीय इतिहास को काफी प्रभावित किया ।केवल चामुंडराय, जिन्होंने ८४ युद्ध लड़कर विरूद पद प्राप्त किया था, ने श्रवणबेलगोला की प्रसिद्ध ५७ फीट ऊँची एक पत्थर को बाहुबली की मूर्ति निर्मित कराकर भारतीय संस्कृति को अपूर्व योगदान दिया। मेवाड़ के सच्चे भक्त भामाशाह जिन्होंने अतुल धन-राशि देकर हल्दी घाटी के युद्ध में अपना जौहर दिखाया था, जन ही थे। अकबर के शासन काल में इस धर्म के मानने वालों की संख्या करोड़ से भी अधिक थी। अकबर के समय में जन विद्वान हरिविजय सूरि, बिजयसेन सूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय उनके दरबार में रहे थे। इस प्रकार जन सम्राट्, विद्वान् व पंडित विभिन्न रूप से भारतीय इतिहास को सदैव प्रभावित करते रहे हैं। २. सामाजिक प्रभाव :-सामाजिक क्षेत्र में जीवन का कोई ऐसा आयाम नहीं जिसे जैन धर्म ने प्रभावित न किया हो। पारिवारिक जीवन, रहन-सहन, भोजन, वस्त्र, खान-पान, आमोद-प्रमोद, स्त्रियों की स्थिति और अन्य समाज के वर्ग सभी को जन धर्म का योगदान रहा है। परिवार में प्रातः स्नान कर नित्य नियम से पूजन व स्वाध्याय करने मन्दिर में जाना, सायं को रात्रि होने से पूर्व भोजन कर उसके उपरान्त मन्दिर में आरती कर धार्मिक प्रवचन आदि सुनना-इस प्रकार की व्यवस्था से उन्होंने जीवनक्रम को नियंत्रित कर दिया । मांसाहार निषेध, बिना छना जलपान निषेध और अन्य खान-पान के नियम जहाँ धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से आवश्यक हैं वहाँ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी परमावश्यक और लाभकारी हैं । स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अध्ययन, स्वाध्याय और भजनपजन का अधिकार प्रदान कर उन्हें भी पुरुषों के समान मान्यता प्रदान कर समाज में उच्च स्थान दिलाया। जाति व्यवस्था के बन्धनों को त्याग कर सभी जाति को पूजन, धर्म और अन्य सभी प्रकार की समान सुविधा प्रदान कर एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण को रोका। भगवान महावीर के संदेश, "जो तुम हो वह दूसरा है"-"स्वरूप दृष्टि से आत्मा एक है, अर्थात् समान है"-'समस्त जीवों को अपने समान समझो"-से उन्होंने विभिन्न जातियों से उच्च और नीच, महानता और हीनता की भावना निकाली। "जन्म से कोई न ब्राह्मण है और न शूद्र" यही महावीर का समभाव समाज में क्रांति लाथा । इतना ही नहीं "प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है"इस सन्देश से आपने सभी वर्ग और जाति के लोगों को प्रगति की ओर बढ़ने को अग्रसर किया। महावीर की सदैव यह दृष्टि रही कि आदर्श समाज कैसा हो। इस हेतु ही आपने निरपराधी को दण्ड न देना, असत्य न बोलना, चोरी न करना, न चोर को किसी प्रकार की सहायता देना, स्वदार-संतोष के प्रकाश में काम भावना पर नियन्त्रण रखना, आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, व्यय-प्रवृत्ति के क्षेत्र की मर्यादा करना, जीवन में समता, संयम, तप और त्याग वृत्ति को विकसित करना आदि नियमों को प्रचारित किया । भगवान् महावीर की यह सामाजिक क्रान्ति हिंसक न होकर अहिंसक है, संघर्षमूलक न होकर समन्वयमूलक है। अतः सामाजिक क्षेत्र में इसका पर्याप्त योगदान रहा। 3. धार्मिक प्रभाव-धार्मिक दृष्टि से जैन धर्म ने भारतीय समाज को सबसे अधिक योगदान दिया। क्योंकि उस समय धर्म में अनेक कुरीतियाँ व्याप्त थीं। धर्म उपासना की नहीं प्रदर्शन की वस्तु हो गया था, यज्ञों में पशुओं का बलिदान तक धार्मिक क्रिया बन चुका था। अतः उन कुरीतियों को दूर करने हेतु भगवान् महावीर ने प्रचलित उपासना पद्धति का तीव्र शब्दों में खण्डन किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर को प्राप्त करने के साधनों पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार नहीं है। उसे प्रत्येक व्यक्ति बिना धर्म, वर्ग या लिंग के भेद के मन की शुद्धता और आचरण की पवित्रता के आधार पर प्राप्त कर सकता है। इस निमित्त केवल अपनी कषायों-क्रोध, मान, माया, लोभ का त्याग आवश्यक है। इतना ही नहीं आपने प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ईश्वर बनने में समर्थ घोषित कर जनता के हृदय में शक्ति, आत्मविश्वास और आत्मबल का तेज भरा । आपके प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्त जिनका भारतीय दर्शन पर प्रभाव पड़ा, निम्न हैं : (क) अहिंसा मार्ग :-भगवान् महावीर का कथन, "किसी भी प्राणी का घात मत करो", "जिस प्रकार तुम्हें दुःख-सुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी दुःख-सुख का अनुभव करते हैं अतः जो तुम्हें अपने लिए नहीं रुचता हो, उसका व्यवहार दूसरे के प्रति मत करो। इसीलिए सदा अहिंसा के पालन में सतर्क रहो,” उनके अहिंसा धर्म का मूलाधार है। वास्तव में अहिंसा ही जैन १. बा० कामता प्रसाद-दिगम्बरत्व और दिगम्बर मनि, पृ. १२० जैन इतिहास कला और संस्कृति ११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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