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________________ सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्री, गुणीजनों में प्रमोद, दुखी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत आचरण या विचार वालों के प्रति माध्यस्थभाव की ही एक अहिंसक हृदय भगवान से प्रार्थना करता है । आरम्भी, उद्योगी, संकल्पी और विरोधी-इन चारों प्रकारों की हिंसा का त्याग आवश्यक बताया गया है। भगवान् महावीर के समय में हिंसा का धर्म के नाम पर भयंकर ताण्डव हो रहा था। उक्त चारों प्रकार से हिंसा फैल रही थी। हिंसा के समर्थन में नित्य नई व्याख्याएँ धर्माधिकारी गढ़ रहे थे । धर्म में ही नहीं समाज में भी हिंसक आचरण अनेक रूपों में प्रविष्ट हो चुका था। वर्गवाद, छुआछूत, नारी के प्रति हीन भावना, मत्स्य न्याय आदि बातें जनसमाज को प्रतिक्षण नारकीय यातना दे रही थीं। महावीर ने धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया। वे एक विराट सामाजिक और धार्मिक चेतना लेकर आए। करोड़ों आत्माओं का पीड़ित स्वर उनकी वाणी में मुखरित हुआ। उन्होंने घोषित किया कि कोई भी धर्म मन, वाणी या कर्म से किसी को दुःख देने का समर्थन नहीं कर सकता। जो धर्म की ऐसी व्याख्या करता है वह स्वयं हमारी दया का पात्र है और धर्म के सच्चे स्वरूप को नहीं जानता। जैनधर्म की महती सांस्कृतिक देन के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान डा० राधाकमल मुखर्जी लिखते हैं-"भारतीय सभ्यता को जैनधर्म की सर्वोच्च मूल्य की देनें हैं-प्रत्येक जीवधारी के प्रति, उदारता और तपस्या पद्धति के प्रति, वस्त्रत्याग और उपवासादि के प्रति विश्वसनीय आदरभावना। यह बात केवल साधुओं ने ही नहीं, श्राविकाओं ने नहीं, किन्तु जन-समान्य ने भी स्वीकार की। बड़े-बड़े राजाओं और पुरोहितों ने भी।" अहिंसक आचरण विश्वमैत्री और समभाव की प्रथम सीढ़ी है। आत्मशुद्धि के लिए सबसे पहली आवश्यकता अहिंसक दृष्टि की है। अहिंसा का वास्तविक परिणाम आत्मशुद्धि है। यह एक नियम का सिद्धांत है। जिसकी आत्मा ही निर्मल नहीं है वह कैसे स्वयं को श्रेष्ठ कह सकता है ? श्रेष्ठता का प्रथम पाठ अहिंसक और सदाशय आचरण है । शक्तिशाली ही अहिंसक हो सकता है। अहिंसक की आत्मा बलवती होती है। किसी को दण्डित करने और उसके प्राण लेने की अपेक्षा कई गुणा अधिक आत्मबल उसे क्षमा कर देने में लगता है। कापुरुष कभी अहिंसक नहीं हो सकता, क्योंकि अहिंसा त्याग और साहस दोनों चाहती है और इन गुणों का कायर व्यक्ति में सर्वथा अभाव होता है। कायर को अपने प्राण सबसे अधिक प्रिय होते हैं, स्वार्थ और अवसरवादिता भी उसमें भरपूर होती है, उसके जीवन का केवल एक ही सिद्धान्त होता है—जीना और केवल अपने लिए जीना तथा जीने के लिए किसी भी मार्ग को स्वीकार कर लेना । महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा उनके युग के लिए वरदान सिद्ध हुई । मानव जाति के लिए आज अहिंसा की उस युग से अधिक आवश्यकता है। अहिंसा की मानव को सदा अपेक्षा रहेगी। प्रायः कहा जाता है कि जैन-अहिंसा के कारण ही भारत कायर हो गया और सैकड़ों वर्ष गुलाम रहा। ये वे ही लोग हैं जो प्रायः आवेश और भावुकता में सोचा करते हैं। स्वार्थांधता, पारस्परिक कलह, विलासिता और अहम्मन्यता हमारी पराजय के मूल कारण हैं, जो आज भी अनेक रूपों में हमारे भीतर काम कर रहे हैं। अहिंसा कभी पतन और पराजय स्वीकार नहीं कर सकती। मनि और गृहस्थ की अहिंसा के स्तरों को न समझने के कारण भी लोगों में पर्याप्त भ्रम फैलता रहा है। अहिंसक मृत्यु से नहीं डरता, वह असंग्रही भी होता है, फिर उसमें कायरता को कहाँ अवसर है ? अपरिग्रह-असंग्रह अहिंसक आचरण मनुष्य में विशाल लोकचेतना जागृत करता है। इस आचरण के फलस्वरूप असंग्रह की भावना का उदय होता है . व्यक्तिगत सुख का अधिकतम त्याग मानव में जागृत होता है। पहले सांसारिक भोग-विलास की सामग्री का त्याग किया जाता है, यह त्याग बाह्य-असंग्रह है और आन्तरिक सांसारिक इच्छाओं का त्याग आन्तरिक-असंग्रह है। महावीर के युग में धर्म के नाम पर पण्डे-पुजारी अधिकाधिक संग्रहवृत्ति के आदी हो चुके थे । व्यक्तिगत और वर्गगत स्वार्थ सर्वोपरि स्थान ले चुके थे। एक ओर घोर भुखमरी, अशिक्षा एवं रुग्णता थी और करोड़ों व्यक्ति मात्र अस्तित्व के लिए तड़प रहे थे, जबकि दूसरी ओर मुट्ठीभर लोगों के हाथ में जीवन की सारी सुख-सुविधाएँ केन्द्रित थीं। महावीर ने स्वयं अहिंसक और अपरिग्रही बनकर, राज्य-सुख त्याग कर जनता के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया। “यह सब संसार से घृणा करके नहीं किया, किन्तु जीवन की पूर्णता, वास्तविकता और विश्व के ऐक्य को खोजने के लिए यह मार्ग अपनाया।" १. राधाकमल मुखर्जी : ए हिस्ट्री ऑफ सिविलिजेशन, पृष्ठ १६१. २. मुनि श्री नथमल : अहिंसा तत्वदर्शन, पृष्ठ २३८ ३. शान्ताराम भालचन्द्र देव : हिस्ट्री पॉफ जैन मोनाकिज्म, पृष्ठ २. जैन इतिहास, कला और संस्कृति ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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