________________
श्रमण संस्कृति में महत्त्व दिया गया है। श्रम कैसा हो, किसके लिए हो, यह भी श्रमकर्ता के लिए विचारणीय है । अन्तःकरण से किया गया हो और महान उद्देश्य से परिचालित हो तभी प्रशंसनीय है । यदि हम श्रम दूसरे के लिए न कर सकें तो कम-से-कम स्वयं के लिए तो करें। उत्कृष्ट श्रम वही है जो जीवमात्र की हितकामना से किया जाता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति सच्चे और नियमित श्रम को जीवन में अपना ले तो फिर मानव-जाति के दुखी होने का कोई कारण ही नहीं रहेगा। इस प्रकार श्रमण महावीर ने भारतीय जीवन की आहत, भ्रष्ट और आक्रान्त चेतना को श्रम का महान सन्देश दिया। इस सन्देश के द्वारा शोषण, अनाचार और धार्मिक ठेकेदारी को भी महावीर ने सर्वथा अवांछनीय और अनुचित घोषित किया । महावीर के समय किस प्रकार कुछ पण्डे व पुरोहित धर्म की आड़ लेकर अपनी उच्चता, ईमानदारी और भोगवृत्ति का समर्थन कर रहे थे-यह बात एक अन्य प्रसंग में कथित डा. रामविलास शर्मा के इस कथन से स्पष्ट हो जाती है-"अंग्रेजी साम्राज्य के स्तम्भ देशी नरेश अचानक धर्मावतार बन गए हैं। उनके अखबार जाट, राजपूत, क्षत्रिय, सिख आदि-आदि जातीयता के नाम पर मध्यवर्ग के लोगों और किसानों को शांति और जनतंत्र के खिलाफ उकसाते हैं। ये राजा इस बात का प्रचार करते हैं कि किसी जाति-विशेष के लोग ही शासन करने की योग्यता रखते हैं।'' स्पष्ट है कि एक विशिष्ट वर्ग के लोग उस युग में भी श्रम से बचने के बौद्धिक उपाय सोच उठे थे। मांसाहार भी डटकर प्रचलित था और वह भी धर्म के नाम पर।
शम
श्रम की उपलब्धि शमात्मक होनी चाहिए । सच्चा व्यक्तिगत और सार्वजनिक श्रम अवश्य ही शान्ति की स्थापना करेगा। तपस्वी को तप से आत्मा में एक निर्मलता का अनुभव होता है, वही उसकी उपलब्धि है। मजदूर को श्रम से भोजन मिलता है, उससे पेट भरता है, मन शान्त होता है, वही उसकी उपलब्धि है। जब श्रम से हमें इच्छित शान्ति नहीं मिलती तो दो ही बातें हो सकती हैं। या तो श्रम अविवेक से किया गया है, या फिर लोक में श्रम के मूल्यांकन की व्यवस्था गलत है। महावीर और महात्मा बुद्ध का आशय यही था कि बिना सच्ची साधना के मन को सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती।
सम
श्रम के फलस्वरूप मानव को शान्ति मिलती है और शान्त अवस्था में ही वह उत्कृष्ट ढ़ग से अपने लिए और सारी मानवता के लिए सोच सकता है। उक्त दो अवस्थाएँ विश्वमैत्री और विश्वबन्धुत्व की स्वस्थ भूमिका प्रस्तुत करती हैं। मानव-मन में इतनी निर्मलता और सरलता आ जाती है कि वह प्रत्येक मानव और जीवन में आत्मवत् अनुभूति करता है । सभी प्रकार की क्षुद्रता उससे निकल जाती है।
___ यह तो श्रमण शब्द की व्यापकता पर एक संक्षिप्त-सी टिप्पणी हुई । अब हम जैन-परम्परा की कुछ विशिष्ट साँस्कृतिक देनों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे । सामान्यतया कह दिया जाता है कि भारतीय संस्कृति में समन्वय, सर्वभूत-मैत्री, अनासक्ति, परलोकपरकता और अध्यात्म आदि का अद्भुत योग है । पर ये सभी तत्त्व किन-किन स्रोतों से आकर इसमें एकाकार हुए हैं, यह जानना भी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसके बिना हमारी दृष्टि वैज्ञानिक नहीं कही जा सकती। अहिंसक आचरण की तलस्पर्शी और प्रयोगात्मक चेतना तथा जीवन पद्धति निश्चित रूप से जैन और बौद्ध स्रोतों से आई है। अपरिग्रह या निःसंगता की भावना भी उक्त दोनों धाराओं ने एक विशिष्ट प्रयोग के रूप में प्रस्तुत की। ये दो बातें जीवन के आचरण या व्यवहार पक्ष को ध्यान में रखकर प्रस्तुत की गई। चिन्तन के क्षत्र में अनेकान्त दृष्टि द्वारा ज्ञान का चिरकाल से अवरुद्ध मार्ग भी जैनाचार्यों ने खोला। इन तीनों देनों पर हम क्रमशः संक्षेप में विचार करेंगे। अहिंसा
अहिंसक आचरण जैन-विचारधारा का प्राण है। धर्म का मौलिक रूप अहिंसा है । सत्य आदि उसके विस्तार हैं'अवसेसा तस्स रक्खट्ठा' शेष व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए है।
समस्त जैनाचरण अहिंसामूलक है और चिन्तन अर्थात् विचारधारा अनेकान्तात्मक। प्रायः समस्त धर्मों की शिक्षाएं वर्जनास्मक होती हैं । अहिंसा भी ऐसा ही निषेधात्मक शब्द है। किन्तु जैन-अहिंसा निषेध के द्वारा अकर्मण्यता को प्रोत्साहित नहीं करती। उसका क्रियात्मक रूप भी है । वह है
१. डॉ. रामविलास शर्मा : संस्कृति पीर साहित्य, पृष्ठ २९४ २. मुनि श्री नथमल : "अहिंसा तस्वदर्शन", पृष्ठ ३
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.