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________________ व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता की ओर प्रेरित किया। भारत अंगरेजों के कारण एक बहुत बड़े जगत् के सम्पर्क में आया। "अनेक संस्कृतियों और जातियों के मिलन से भारतीय संस्कृति में जो एक प्रकार की विश्वजनीनता उत्पन्न हुई, यह सचमुच संसार के लिए वरदान है।" "भारतीय संस्कृति में कालभेद से जो विभिन्न स्तर पाये जाते हैं, हमारा कर्तव्य है कि हम न केवल उनके परस्पर सम्बन्ध का ही, किन्तु प्रत्येक स्तर की पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था का भी, उन-उन त्रुटियों का भी, जिनके कारण एक स्तर के पश्चात अगले स्तर का आना आवश्यक होता गया, पता लगावें, जिससे एक धारावाहिक जीवित परम्परा के रूप में भारतीय संस्कृति को हम समझ सकें। उपर्युक्त प्रकार के अध्ययन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालों के साथ हमारी न केवल ममत्व या तादात्म्य की ही भावना हो, किन्तु बुद्धियुक्त सहानुभूति भी हो।" श्रमण संस्कृति भारतीय संस्कृति मूलतः अध्यात्मप्रधान और समभावधारिणी है। इस संस्कृति पर सामान्यतः देशी-विदेशी अनेक प्रभाव पड़े, अनेक क्रान्तियाँ आई, पर इसकी आन्तरिक चेतना को सर्वाधिक प्रौढ़ता, वैज्ञानिकता और मानवीयता से श्रमण-धारा ने हो झकझोरा, संवारा और पुनः निर्मल किया। ई० पू० 5-6 ठों शताब्दी में वैदिक संस्कृति के अन्तर्गत प्रचलित यज्ञों में पशुबलि, अतिव्ययसाध्य क्रियाकाण्ड का अन्धाधुन्ध प्रचार, जाति प्रथा, अस्पृश्यता की तीव्र भावना आदि बातें सामान्य जनमानस की असह्य पीड़ा का कारण बन चुकी थीं । धर्म के नाम पर कुछ पण्डे व पुजारी जनता को मनमाना पथभ्रष्ट कर रहे थे। निष्कर्ष यह है कि हिंसा, आडम्बर, असहिष्णता, प्रभुता और भोगों की ओर जीवन को बलात् चलाया जा रहा था। "भारतीय संस्कृति समभाव प्रधान है। इसमें श्रम, शम और सम--ये तीन मूल तत्त्व हैं। दूसरे शब्दों में साधना, शान्ति और समत्व की भावना ही देश की संस्कृति के मूल में हैं । उक्त तीनों बातें ज्ञान की निर्मल अवस्था में ही झलक सकती है।"३ पर ज्ञान पर अर्थात् सद्-असद् के विवेक पर ही तो पर्दा पड़ गया था ! वैदिक और श्रमण संस्कृतियां ही इस देश का सच्चा प्रतिनिधित्व करती हैं। इन दोनों में भारतीय संस्कृति की विराट प्रतिमा देखी जा सकती है। बौद्धों और जैनों की यह महती देन-श्रमण संस्कृति, भारतीय संस्कृति की अक्षय और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निधि है। यहां हम अपनी सीमित योजना के कारण केवल जैनधारा से आगत श्रमण तत्त्वों पर विचार करेंगे। जैनधर्म मुलतः ज्ञानप्रधान है, पर अध्यात्मतत्त्व भी उसमें समान रूप से महत्त्वपूर्ण है । आज आचार, मूर्ति-पूजा, तीर्थ-यात्रा और भक्ति जो कुछ भी इसमें साधना-मार्ग ऐसा दृष्टिगोचर होता है वह सब साधनमात्र है, साध्य नहीं । साधन विकास की एक अवस्था के बाद छोड़ दिया जाता है। फिर जैन आचार को आचार्यों ने अनाचार की सीमाओं में जाने से सदा बचाया है। ऐसी किसी व्यवस्था या प्रवृत्ति को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया गया जो किसी भी स्तर के स्वैराचार का कारण बनती। श्रमण शब्द की आत्मा त्रितात्त्विक है। वे तत्त्व हैं-श्रम, शम और सम। ये तीनों तत्त्व भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में चरम उपलब्धि के प्रदाता हैं। श्रम प्रत्येक प्राणी और विशेषतः मानव को ईमानदारी से यथाशक्ति अनवरत श्रम साधना का आदी होना चाहिए। श्रम से ही जीवन की महानता का उद्भव होता है । श्रम से जीवन निर्मल होता है; आत्मविश्वास का उदय होता है ; अकर्मण्यता और आलस्य का क्षय होता है। श्रम सच्चे सुख का प्रथम और अनिवार्य सोपान है । किसान, विद्वान्, राजा तथा साधु, श्रम सभी के लिए अनिवार्य है। जो बिना श्रम-मुख्यतः दैहिक साधना के अन्न खाता है और सुख भोगता है वह आत्मद्रोही, धर्मद्रोही और अन्ततः राष्ट्रद्रोही है। श्रम के अभाव में किया गया चिन्तन अनिवार्य रूप से वर्गवाद, साम्राज्यवाद, अनाचार और घृणित भोग-परम्परा का जनक होता है। अतः श्रमण महावीर और बुद्ध ने श्रम की अनिवार्यता का प्रत्येक मानव के लिए प्रतिपादन किया। श्रम के साथ विवेकदृष्टि को भी १. रामधारी सिंह 'दिनकर' : संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ १७. २. डॉ० मंगलदेव शास्त्री : "भारतीय संस्कृति का विकास, वैदिक धारा", पृष्ठ ३८ ३. डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन : "कविवर बनारसीदास : जीवनी पोर कृतित्व", पृष्ठ ३१२ जैन इतिहास, कला और संस्कृति ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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