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दिनों तक बाहरी दुनिया से अलग रहने के कारण, भारत का स्वभाव भी और देशों से भिन्न हो गया। हम ऐसी जाति बन गए जो अपने आप में घिरी रहती है। हमारे भीतर कुछ ऐसे रिवाजों का चलन हो गया जिन्हें बाहर के लोग न तो जानते हैं और न समझ ही पाते हैं । जाति प्रथा के असख्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हैं।"१ "हमारे गुणों से ऐसी शिक्षा नहीं मिलती जैसी हमारे दोषों से। विश्वमित्र के सूक्तों, कपिल के तत्त्वदर्शन और कालिदास के काव्यों के पढ़ने से उतनी शिक्षा नहीं मिलती, जैसी हमारे राजनैतिक जीवन के गिरने और पुरोहितों के प्रभुत्व से। गौतमबुद्ध और अशोक के नायक होने में लोगों के धर्म की उन्नति के हाल में उतनी शिक्षा नहीं मिलती, जितनी कि सर्वसाधारण में स्वतंत्रता के लिए बिल्कुल अभाव से । ....' 'प्राचीन हिन्दुओं के मानसिक
और धार्मिक जीवन का इतिहास अनुबन्धता, पूर्णता और गम्भीर भावों में अनुपम है। परन्तु वह इतिहासवेत्ता जो इस मानसिक जीवन का केवल चित्र उतारता है, अपने कर्तव्य को आधा करता है । हिन्द इतिहास का एक दूसरा और खेदजनक भाग भी है और कथा के इस भाग को भी ठीक-ठीक कह देना आवश्यक है।"२ भारतीय संस्कृति को कम ही सही पर गहरे और व्यापक परिवर्तनों में से गुजरना पड़ा है। बाहर के आघातों को छोड़ भी दें, तो भी अन्दर के ही कम नहीं हैं । हिन्दुओं के बाहुल्य के कारण प्रायः यहां की संस्कृति को भी हिन्दू या वैदिक संस्कृति कह दिया जाता है। प्राचीन वैदिक धर्म में और अद्यतनीन हिन्दूधर्म में प्राय: साम्य नहीं मिलता । प्राचीन वैदिक आर्य पूर्णतया लौकिक चेतना या दृष्टिकोण के थे। उनके देवता निराले थे । वे उनसे वर्तमान जीवन के लिए वजय, सन्तान और सुख की याचना करते थे । कर्ममूलक बन्धन और मोक्ष की चिन्ता से कभी उनके ललाट में सलवटें न पड़ी थीं। वे परलोक के प्रति भी उत्सुक न थे। ब्राह मण-युगीन यज्ञ सम्बन्धी पशुबलि का भी आज का हिन्दूधर्म समर्थन नहीं करता । महावीर, बुद्ध और परवर्ती भक्ति आन्दोलन की व्यापक अहिंसा और प्रेम भावना का गहरा प्रभाव पड़ा है। भास और कालिदास के समय का भारत पर्याप्त समृद्ध, सन्तुलित, स्पष्ट एवं लोकचेतनावलित और व्यावहारिक था। वह प्राचीन वैदिक और परवर्ती पौराणिक धारणाओं से बहुत कुछ परे है। वैदिक युग प्राकृतिक शक्तियों का, जीवन के भौतिक संघर्षों का और वर्तमान प्राप्त जीवन के संरक्षण का यग था। पौराणिक युग आदशों का था। कालिदास का युग स्वतंत्र चेतना और आदर्श तथा व्यवहार के संतुलन का था। तुलसी के आदर्श और परलोकपरायण युग से भी यह युग भिन्न था। रीतिकालीन जीवन यौन और मांसल चेतना का था और आज का जीवन कितनी अस्थिरता का है, अविश्वास का है, कौन नहीं जानता ? किन्तु इस विकासक्रम से हमारी संस्कृति पुष्ट ही हुई है।
भारतीय संस्कृति में पांच क्रान्तियां
भारतीय संस्कृति इस देश में बाहर से आकर बसने वाली और एतद्देशीय अनेक जातियों की संस्कृतियों के सम्मिश्रण से आज के पुष्ट रूप को प्राप्त कर सकी है । अत: आज यह बता सकना बड़ा कठिन एवं विवादग्रस्त विषय है कि इस संस्कृति के निर्माण में किस जाति का कितना और कौन-सा भाग है। सागर से निमज्जित अनेक सरिताओं की निजता जिस प्रकार नहीं रहती, ठीक उसी प्रकार हम यहाँ समझ सकते हैं। फिर भी जैसे एक ही सागर के देश-विशेष और अवस्था-विशेष के आधार पर अनेक नाम हैं, उसी प्रकार यहाँ भी संस्कृतियों के नाम हैं। उनकी कुछ मौलिक छापों को विवेक के साथ सहज ही समझा भी जा सकता है। पहली क्रान्ति आर्यों के आगमन से आई। देवोपासना, आचार, रहन-सहन सभी कुछ प्रभावित हुआ। पहले से विद्यमान द्रविड़ जाति ने कई नए अनुभव किए। आर्य संस्कृति द्रविड़ों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ और सम्पन्न थी। उसने द्रविड़ों की चेतना को पर्याप्त नवता दी। दूसरी क्रान्ति महावीर और बुद्ध द्वारा ई० पू० 5वीं शती में अनेकमुखी व्यापक मानवीय चेतना का सम्बल लेकर आयी । याज्ञिक क्रिया काण्ड, पशुबलि और अनाचार तथा मठाधीशों के विरोध में अपनी पूरी बौद्धिक और मानवीय मान्यताएँ लेकर उक्त दोनों महापुरुष आए । तीसरी क्रान्ति यवनों के आगमन से हुई । ये यहाँ आकर धीरे-धीरे शासक ही हो गए। इनकी सभी मान्यताएँ भारतीय जीवनदृष्टि के विपरीत थीं। भारतीय संस्कृति के जीवन में कदाचित् यह सबसे बड़ा संघर्ष-काल था। धर्म, नीति, कला, आचार और समाज सब कुछ हमसे पृथक् था। पर भारत की विशालता में यह भी समा गई। यह संस्कृति जो आग बनकर आई थी, गंगा की लहरों सदश भारतीय मन ने इसे शनैः शनैः ठंडा कर लिया। चौथा मोड़ था दक्षिण से उत्तर में आए भक्ति आन्दोलन का । इस आन्दोलन से पुरानी आस्तिक भावना को बड़ा बल मिला । भारतीय मन संगठित होने लगा। और, पांचवीं क्रान्ति अंगरेजों के आगमन से आयी। और सभी जातियाँ तो भारत में आकर कुछ समय के बाद यहीं की हो गईं, यहाँ के जीवन में बहुत-कुछ घुल-मिल गई, पर अंगरेज यहाँ सौ वर्ष से अधिक रहकर भी विदेशी ही रहे । उनमें अपनी संस्कृति के प्रति बहुत अभिमान था। अंगरेजों ने भी हमें यथार्थ जीवनदष्टि,
१. रामधारी सिंह दिनकर : "संस्कृति के चार अध्याय पर पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृष्ठ 4 २. पार० सी० दत्त : "प्राचीन भारत की सभ्यता का इतिहास", पृष्ठ १६
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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