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________________ महत्व की चीज नहीं है। वह ऐसा मानता है कि यह अनुभव उसे लाखों बार हो चुका है और अभी न जाने कितनी बार होना है।"* कर्म के साथ भगवत्कृपा को भी भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है । सब कुछ होने पर भी इस कृपा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, यह प्रत्येक भारतीय का लगभग अटूट विश्वास है । गतजन्म और परजन्म की ही चेतना में उसका समस्त जीवन बीतता है । "इस लोक में रहते हुए भी हिन्दू की दृष्टि परलोक को ढूंढ़ती रहती है। आस्तिकता और आदर्श ईश्वर की पराशक्ति, उसकी सर्वोपरि महत्ता, उसका सर्वज्ञत्व और उसका सर्वव्यापकत्व आदि बातें भारतीय आत्मा और मस्तिष्क में चिरकाल से बद्धमूल हैं। स्वयं को ईश्वर के सम्मुख अतितुच्छ समझना भी हमारी आत्मतुष्टि का बड़ा कारण है । दूसरी ओर समस्त भारतीय जनता सदा से आदर्श जीवी रही है। भक्ति, सेवा, त्याग, तप, मातृ-पितृ भक्ति आदि आदर्शों के लिए भारतीय जनता युग-युग से संघर्ष करती आयी है । फलतः हमारा व्यवहार पक्ष अत्यन्त अविकसित रह गया जो आज प्रत्यक्ष है । पुरु ने पराजय स्वीकार कर ली, देश को गुलाम बनाना स्वीकार कर लिया, किन्तु सिकन्दर के वध का अवसर पाकर भी, वचनबद्ध होने के कारण उसे छोड़ दिया । पृथ्वीराज ने अपने पराजित और शरणागत के आदर्श के कारण- -उसके अभयदान की चेतना के कारण, गौरी को अनेक बार छोड़ दिया । भीष्म का आमरण ब्रह्मचर्य और राम का सुदीर्घ वनवास भी पितृ-भक्ति आदर्श के ही ज्वलन्त उदाहरण हैं। गाँधी और नेहरू, जो कि आधुनिक चेतना से सम्पन्न थे, ने भी अनेक बार अपने आदर्शजीवी होने का परिचय दिया है। हमने आदर्श को देश और जाति से भी बढ़कर महत्त्व दिया है। आज प्रश्न यह है कि आदर्श तो व्यक्तिगत होता है फिर उसे एक व्यापक राष्ट्र के साथ सम्बद्ध करना कहाँ तक उचित है ? व्यक्ति अपने आदर्श की रक्षा के लिये क्या समूचे देश को भी नारकीय यातना के लिए विवश कर सकता है ? उसे दासता की ओर मोड़ सकता है ? ये प्रश्न आज समाधान माँगते हैं । हमारे आज के पिछड़ेपन में हमारे आदर्श कहाँ तक उत्तरदायी हैं, इसपर भी हमें ठण्डे मन और खुली दृष्टि से विचार करना है । समर्थ को कुछ भी अच्छा लग सकता है। पर जबकि हम धन में, विज्ञान में, अन्नोत्पादन में शस्त्रास्त्र के निर्माण में, उद्योग-धन्धों में यथार्थमूलक जीवन-दृष्टि में आज भी पिछड़े हुए हैं और इन दिशाओं में सम्पन्न देशों की ओर आए-दिन दीनतापूर्वक हाथ फैलाए रहते है, यह कहां तक उचित होगा कि अब भी हमारी आँखें न खुलें ? तो पहले हम पूर्ण समर्थ हों, उसके पश्चात् हमारे आदर्श अन्य देशों के भी अनुकरण के विषय बन सकते हैं । इसके बिना हमारे आदर्श हमें उपहसित ही कराते रहेंगे। आदर्श वाली का होता है, कमजोर का नहीं। आचार और रूढ़ियां भारतीय संस्कृति की पांचवीं विशेषता उसमें व्याप्त क्रियाकाण्ड और रूढ़ियों में है । अनेक देवी-देवताओं का अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डों द्वारा पूजन, अर्चन और प्रसादन होता है । यह सुविदित ही है कि अध्यात्म प्रधान भारतीय चेतना धीरे-धीरे भयंकर क्रियाकाण्ड की आदी हो गई । क्रियाकाण्ड, जो कभी एक मुक्ति-साधन के रूप में आरम्भ हुआ था, आगे चलकर उसे ही साध्य मान लिया गया । अनेक प्रकार की रूढ़ियां भी सामने आई और आज भी हैं । इन सब पर बहुत विचार होता आया है, अत: संकेतमात्र पर्याप्त होगा । विकासशीलता भारतीय संस्कृति की अन्तिम विशेषता उसकी विकासशीलता है । विकास सृष्टि का नियम है। यह हमारी संस्कृति में भी सुस्पष्ट है। यद्यपि भारत के चारों ओर समुद्रों और पर्वतों का ऐसा दुर्लभ्य जाल फैला रहा है कि इसके निवासियों को अन्य देशों के निरन्तर आवागमन का लाभ नहीं हो सका है। यह बाधा अब दूर हुई है। प्राचीन काल में यदि कोई जाति कभी आ भी गई तो फिर वह लौटकर शायद ही गई। वह यहीं की होकर रह गई । “इस संस्कृति में समन्वयन तथा नये उपकरणों को पचा कर आत्मसात् करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा, यह संस्कृति जीवित और गतिशील रही। लेकिन, बाद को आकर इसकी गतिशीलता जाती रही, जिससे यह संस्कृति जड़ हो गई और उसके सारे पहलू कमजोर पड़ गये।" ... "बहुत १. डॉ० सम्पूर्णानन्द कल्याण "हिन्दू संस्कृति श्रंक" पृष्ठ ७२ २. वही ३. रामधारी सिंह 'दिनकर' "संस्कृति के चार ग्रध्याय" पर पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृष्ठ ६ इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only १११ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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