SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिए प्रतिवर्ष एक हजार घी के बड़े राजा को देने की शर्त का उल्लेख आया है। अशोक नामक इस महत्तर ने अपनी दोनों पत्नियों को संतुष्ट करने के लिए गोकुल को दो भागों में विभक्त कर प्रत्येक पत्नी को पांच सौ घी के घड़ देने का दायित्व सौंप दिया । बृहत्कथा के इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'महत्तर' पद राजा द्वारा किन्हीं शर्तों पर दिया जाने वाला पद विशेष रहा होगा। ग्राम संगठन के संदर्भ में 'महत्तर' अपने काम को आसान बनाने के लिए अपनी पत्नियों अथवा अन्य लोगों को भागीदार बना लेते थे । अशोक नामक महत्तर की दो पत्नियों को आधे-आधे ग्राम का स्वामी बना देने का वृतान्त भी ग्राम संगठन के सामन्तवादी ढांचे को विशद करता है । बृहत्कथा के एक अन्य स्थान पर 'महत्तरिका" का भी उल्लेख आया है जो संभवतः ‘महत्तरक' की पत्नी हो सकती है जिस पर संभवत: प्रशासनिक जिम्मेवारी भी रहती थी। बृहत्कथा कोश में एक स्थान पर राज दरबार में भी 'महत्तरों' की उपस्थिति कही गई है जो राजकीय उत्सवों के अवसर पर याचकों को दान आदि देने का कार्य करते थे । बृहत्कथा कोश के 'कडारपिङगकथानक' में 'महत्तर' को मन्त्री के रूप में भी वर्णित किया गया है। १०. निशीथ चूर्णी में कंचुकी सदृश अन्तःपुर के कर्मचारी के रूप में 'महसर' का उल्लेख मिलता है ।" ११. कल्हण की राजतरंगिणी में 'महत्तर" एवं महत्तम" दोनों का प्रयोग आया है जिनमें 'महसर अन्तःपुर का रक्षक था तो मंत्री कलश के लिए 'महत्तम' का प्रयोग हुआ है । १२. कथासरित्सागर में मिलने वाले 'महत्तर' के सभी प्रयोग अन्त: पुर का रक्षक (chamberlain ) के लिए ही हुए हैं। " १३. मेहेर वंशीय 'वाखल' राजकुल में उत्पन्न मण्डलीक नागार्जुन के पुत्र महानन्द को 'मेहेरो द्विजवल्लभः सहितः पुत्रपौत्रंश्च' के रूप में वर्णित करने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि १४वीं शताब्दी ईस्वी में 'महत्तर' मूलीय मेहेरवंश वर्णं से द्विज था। १४. बिहार में 'महत्तम' मूलीय महतों अथवा महतो वंश के लोग वर्ग से शूद्र एवं ब्राह्मण दोनों होते थे।' १५. १७वीं शताब्दी ई० में जैन लेखक साधु सुन्दरमणि ने अपने ग्रंथ उक्ति रत्नाकर में 'महत्तर' के लिए देशी शब्द मेहरू का प्रयोग किया है।" हेमचन्द्र के देशीनाममाला में महत्तर के लिए प्रयुक्त 'महर' अथवा 'मेहरो' के भाषा शास्त्रीय विकासक्रम की श्रृंखला में 'उक्तिरत्नाकर' में उक्त 'मेहरू' की तुलना की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बारहवीं शताब्दी ईस्वी. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. ११. ८६ तुल० 'वाराणसीसमीपे च गङगारोधसि सुन्दरः । पलाशोपपदः कूटो ग्रामो बहुधनोऽभवत् । प्रसीदशोकनामात्र ग्रामे बहुधनो धनी महत्त रोऽस्य भार्या च नन्दा तन्मानसप्रिया । वृषभध्वज भूपाय घृतकुम्भ सहस्रकम् । वर्षे वर्षे प्रदायास्ते भुञ्जानो गोकुलानि स । दृष्ट्वा 'अशोको महाराटि तथा नन्दा सुनन्दयोः । प्रर्धाधिंगोकूलं करवा ददौ कार्य विचक्षणः ।। " १९४३, २१.३-४, २१.७-८. तुल० 'मीनोपी पपाताशु तन्महारिका वश ।' तुल० पट्टवन्धं विधायास्य कर्कण्डस्य नराधिपाः । मंत्रिणस्तलवर्गाश्च विनेयुः पदपङ्कजम् ॥ कनकं रजतं रत्नं तुरङ्ग करिवाहनम् । स ददुर्महत्तरा हृष्टा याचकेभ्यो मुहुर्मुहुः ॥ तथा 'सत्य' कडारपिड्गोऽयं मन्महत्तरनन्दनः ' निशीयचूर्णी, ६. तुल० 'हर्षान्तिकं दण्डकारण्यः प्रायान्निजमहत्तरः । तुल० 'महत्तमस्य पुत्रो हिप्रशस्ताव्यस्य सोऽभवत् ।' ro 'केनाऽयं रचितोsवेति सोऽपृच्छच्च महत रान् । ते च न्यवेश्मंस्तस्मै तु कर्तारं तिलकस्व माम् ॥" - 'एतन्मह त रवचः श्रुत्वा सर्वेऽपि तत्क्षणम् । सदुक्तमेव वैतदिति तत्र बभाषिरे ।। तुल० तथा- बृहत्कथा, Jain Education International ७३.५३. बृहत्कथा - १.५६.२६४-६५. बृहत्कथा० ८२.३५ राजतरङिगणी, ७.६५६. वही, ७.४३८. कथासरित्सागर, १.५.३४. कथा० ६.६.१६. Discalker, Inscriptions of Kathiavada, p. 73. Choudhari, Early Medieval Village, P. 221. उक्तिरत्नाकर, सम्पादक जिनविजय मुनि, राजस्थान, १६५७, पृ० २७. सीना ६-१२१. बृहत्कथाकोश, सम्पा० ए० एन० उपाध्ये, बम्बई, आचार भी देशभूषण महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy