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________________ इस प्रकार महत्तर एवं महतम सम्बन्धी उपयुक्त साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है। कि 'महत्तर' ग्राम संगठन से सम्बन्धित एक अधिकारी विशेष था। महत्तर राज्य द्वारा नियुक्त किया जाता था अथवा नहीं इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता किंतु मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था में 'महत्तर' की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। वह ग्राम संगठन के एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में राजा तथा उसकी शासन व्यवस्था से घनिष्ट रूप से सम्बद्ध था। पांचवीं शताब्दी ई० के उत्तरवर्ती अभिलेखीय साक्ष्यों में महत्तर' तथा 'महत्तम' के उल्लेख मिलते हैं जिनका सम्बन्ध प्रायः राजाओं द्वारा भूमिदान आदि के व्यवहारों से रहा था । इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित यह तथ्य कि हवीं शताब्दी ई० के उत्तरार्ध के उपरांत 'महत्तर' के स्थान पर 'महत्तम का प्रयोग होने लगा था, एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है तथा युगोन सामंतवादी राज्य व्यवस्था के व्यवहारिक पक्ष पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है । 'महत्तर' का 'महत्तम' के रूप में स्थानांतरण का एक मुख्य कारण यह भी है कि नवीं शताब्दी ई० में पाल वंशीय शासन व्यवस्था में 'उत्तम' नामक एक दूसरे ग्राम संगठन के अधिकारी का अस्तित्व आ चुका था।' 'उत्तम' की तुलना में 'महत्तर' की अपेक्षा 'महत्तम' अधिक युक्तिसंगत पड़ता था। इस कारण 'उत्तम' नामक ग्राम मुखिया से कुछ बड़े पद वाला अधिकारी महत्तम कहा लगा था।' पालवंशीय दान पत्रों में 'महत्तर' 'महत्तम', 'कुटुम्बी बादि के उल्लेखों से यह भी घोषित होता है कि सामान्य किसानों के लिए "क्षेत्रकर' का प्रयोग किया गया है।' 'कुटुम्बी' इन सामान्य किसानों की तुलना में कुछ विशेष वर्ग के किसान थे जो विभिन्न कुलों तथा परिवारों के मुखिया के रूप में ग्राम संगठन से सम्बद्ध थे। उसके उपरान्त 'उत्तम' नामक ग्रामाधिकारियों का स्थान आता था जो संभवत: 'कुटुम्बी' से बड़े होने के कारण 'उत्तम' कहलाते थे। इन 'उत्तम' नामक ग्रामाधिकारियों के ऊपर 'महत्तम' का पद रहा था । पालवंशीय शासन व्यवस्था में इन विभिन्न पदाधिकारियों के क्रम को इस प्रकार रखा जा सकता है - जाने में 'महत्तर' के लिए प्रयुक्त सभी देशी शब्द 'ग्राम मुखिया' के द्योतक थे परन्तु धीरे-धीरे वंश अथवा जाति के रूप में भी इनका प्रयोग किया जाने लगा था। यही कारण है कि १३२६ ई० में काठियावाड़ से प्राप्त शिलालेख में मेहेर' को द्विज वंश कहा गया है ।" क्षेत्रकर 7 कुटुम्बी 7 उत्तम 7 महत्तम' 'उत्तम' नामक एक नवीन पदाधिकारी के अस्तित्व से 'महत्तर' के पूर्व प्रचलित पद को धक्का ही नहीं लगा अपितु इसके अर्थ का अवमूल्यन भी होता चला गया। भारतवर्ष के कुछ भागों विशेषकर उत्तरपूर्वी प्रान्तों तथा कश्मीर आदि प्रदेशों में 'महत्तर' तथा 'महत्तम' दोनों का प्रयोग मिलता है किन्तु 'महत्तर' अन्तपुर के रक्षक ( chamberlain ) के लिए प्रयुक्त हुआ है जबकि 'महत्तम' शासन व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के लिए आया है। कथासरित्सार में भी 'महत्तर' अन्तःपुर के रक्षक के रूप में ही निर्दिष्ट है । किन्तु गुजरात दक्षिण भारत आदि प्रान्तों में महत्तर' के अवमूल्यन का कम प्रभाव पड़ा तथा वहाँ १२वीं शताब्दी ई० तक भी 'महसर को ग्राम संगठन के अधिकारी के रूप में मान्यता प्राप्त थी । १२वीं शताब्दी ई० के उपरान्त 'महत्तर' एवं 'महत्तम' पदों के प्रशासकीय पदों की लोकप्रियता कम होती गई तथा इसकी देशी संज्ञाएँ मेहरा, मेहेर, मेहरू, महतों आदि वंश अथवा जाति के रूप में रूढ होती चली गईं। इन जातियों में किसी वर्ण विशेष का आग्रह यद्यपि नहीं था तथापि शूद्र एवं निम्न वर्ण की जातियों का इनमें प्राधान्य रहा था । इसका कारण यह है कि मध्य काल में इन जातियों से सम्बद्ध लोग ग्राम संगठन के मुखिया रहे थे एवं राजकीय सम्मान के कारण भी उनका विशेष महत्व रहा था। फलतः इन महत्तरों की जाने वाली पीढ़ियों के लिए 'मेहतर' तथा उससे सम्बद्ध 'मेहरा', 'महतो' सम्बोधन गरिमा का विषय था। यही कारण है कि वर्तमान काल में भी महत्तर- महत्तम के अवशेष विभिन्न जातियों के रूप में सुरति है। आर्थिक दृष्टि से इनमें से कई जातियां आज निर्धन कृषक जातिया हैं किन्तु किसी समय में इन जातियों के पूर्वज भारतीय ग्रामीण शासन व्यवस्था के महत्वपूर्ण पदों को धारण करते थे। ठीक यही सिद्धांत ११वीं १०वीं शती ई० के पट्टकिल तथा आपु निक पटेल' अथवा 'पाटिल' मध्यकालीन 'गौर तथा आधुनिक 'गौड़ मध्यकालीन कुटुम्बी आधुनिक कुबी कुमि, फोडी; १. २. ३. Discalker, Inscriptions of Kathiavada, p.73. I.A. Vol. XXIX, No. 7, 1.31. तुल मोमम्बी' Land grants of Mahipala I, I.A. Vol. XIV, No. 23, 11.41-42. Choudhari, Early Medieval Village, p. 220. वही, पृ० २२०. राजतरंगिणी, ७.६५६ तथा ७.४३८. Sharma, R.S., Social Change in Early Medieval India, p. 10. वही, पृ० १० -जैन इतिहास, कला और संस्कृति ४. ५. ६. ७. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only ८७ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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