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एक चिन्तक के रूप में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भारतीय समाज का विश्लेषण किया है और विविध धर्मों के प्रति तुलनात्मक दृष्टि रखते हुए जैनधर्म की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों को समाज के सामने रखा है। साथ ही धर्मप्रभावक आचार्य की भूमिका का निर्वाह करते हुए उन्होंने जैन समाज को ऐसे आदर्शों एवं सामाजिक मूल्यों के आचरण के लिए प्रेरित भी किया है जिससे जैन धर्म अपने वास्तविक अर्थ में प्राणीमात्र का धर्म बन सके। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि आचार्य श्री की दृष्टि में जैनधर्म एक सर्वोत्कृष्ट धर्म इसलिए है क्योंकि यह दया के मूल से जुड़ा हुआ है। इसलिए जैन धर्मानुयायी को बहुत सावधानी और संयम से धर्माचरण करना पड़ता है। वर्तमान धार्मिक पलायन से जैन समाज भी प्रभावित हुआ है। आचार्यश्री ने धर्मप्रभावना के प्रति इस उदासीनता के निम्नलिखित कारण बताए हैं--
(अ) "आधुनिक जैन जातियां प्रायः क्षत्रिय हैं, किन्तु निरन्तर व्यापार करते रहने से उनका वीरतापूर्ण क्षात्र-तेज लुप्त हो गया है। वे डरपोक बन गए हैं। जब कभी उन पर तथा उनके धर्मायतनों (मन्दिरों) पर आक्रमण होता है तो वे शूरवीरता से उसका उत्तर नहीं देते।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ २६) (आ) "जैन धर्मानुयायियों की प्रवृत्ति धन-संचय की ओर इतनी अधिक हो गई है कि वे आत्मा की शक्ति को विस्मृत कर भौतिक सम्पत्ति के मोह में फंस गए हैं।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ २६) (इ) "आजकल जैन धर्म प्रचारकों का लक्ष्य केवल आर्थिक होता है। जिस संस्था की तरफ से वे दौरा करते हैं उस संस्था के लिए द्रव्य एकत्र करना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है । यदि वे इस कार्य में सफल नहीं होते तो उन्हें वह संस्था हटा देती है। इनमें से अधिकांश प्रभावशालिनी वक्तृत्व कला से शून्य होते हैं, शास्त्रीय ज्ञान भी उनका परिपक्व नहीं होता।"
__(उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ३१६) भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन तथा उसके प्रचार-प्रसार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के सम्बन्ध में आचार्यश्री की मान्यता है कि प्रारम्भ भारतवर्ष के अनेक धर्मानुयायी शासकीय शक्ति के प्रभाव से इस्लाम धर्म में दीक्षित किए गए। इन नवदीक्षित इस्लामानयायियों को इस्लाम धर्म की ओर से इतनी सुविधाएं एवं अपनत्व प्रदान किया गया जिसके फलस्वरूप नवदीक्षित इस्लामानुयायी पक्के मुस्लिम बन गए।
इसके विपरीत जैन समाज ने अपने साधर्मी बन्धुओं को अपने ही धर्म में बनाये रखने का प्रभावशाली प्रयास नहीं किया। ऐसे अनेक कारणों से इस्लाम आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रबल जनशक्ति बन गया है। एक उदार सन्त के रूप में आचार्य श्री देशभूषण जी ने इस्लाम धर्म का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए जैन धर्मानुयायियों को धर्मप्रभावना के इस रहस्य को समझाने का प्रयास किया है
"मुसलमानों में जो पारस्परिक भ्रातृ भावना है, वह अवश्य अनुकरणीय है । जैनधर्म में सम्यक्दर्शन का जो वात्सल्य अंग बतलाया गया है....."उस वात्सल्य को मुसलमानों ने अपने यहां क्रियात्मक रूप दिया है। तदनुरूप यदि अरब के किसी मुसलमान पर कोई संकट आता है तो पूर्वी पाकिस्तान तक के मुसलमानों पर उसका प्रभाव होता है । 'सम्यग्दर्शन के एक अन्य अंग स्थितिकरण का आचरण भी मुसलमानों ने अच्छे ढंग से किया है "जैन समाज ने अपने इन दोनों सामाजिक कर्तव्यों को भुला दिया है। इसी कारण आपसी विद्वेष के कारण हमारे अनेक भाई धर्म से च्युत हो चुके हैं ..."दक्षिण में लिङ्गायत जाति, मध्यप्रदेश की कलाल जाति, बिहार, वंगाल, उड़ीसा की सराक जाति पहिले जैन थी, अब वे जैन नहीं हैं। जैन समाज यदि अपने स्थितिकरण का आचरण करता तो ये समची जातियां अजैन कैसे बन जातीं। जैन समाज ने अपने धर्म प्रचार के सभी प्रशंसनीय तथा आचरणीय साधनों को भुला दिया है। इस कारण जैन समाज की जनसंख्या का भारी ह्रास हो गया है और दिन पर दिन होता जा रहा है । इस ओर धार्मिक सज्जनों का ध्यान तुरन्त होना चाहिए।"
(उपदेश सार संग्रह, भाग २, पृष्ठ ३२४-३२५) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी को यह देखकर आश्चर्य एवं दुःख होता है कि जैनधर्म अपनी शानदार सांस्कृतिक विरासत का उत्तराधिकारी होते हुए भी संख्या की दृष्टि से अत्यधिक सीमित हो गया है । दूसरी ओर ईसाई धर्म ने दीन-दु:खियों की सेवा करके भारत में अपनी गहरी जड़ें जमा ली हैं और विदेशी धर्म होते हुए भी अपनी सेवापरायणता एवं धर्मप्रभावना से भारतवर्ष के मानचित्र में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। ईसाई धर्म की इस सेवाभावी विशेषता की ओर संकेत करते हुए आचार्यश्री ने कहा है
"ईसाइयों ने सात समुद्र पार करके भारत के दीन-दरिद्र, असहाय स्त्री-पुरुषों को सभ्य शिक्षित बनाकर सम्पन्न बनाने के
आचार्यरत्न.श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
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