SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब दिगम्बर मत के विषय में भी हम कुछ कहना चाहते हैं। नग्नता क्या है, साधु और असाधु क्या है ? यह प्रश्न यहां उपस्थित होता है। इसके उत्तर में हमारा विचार यह है कि केवल जैनशास्त्र में ही नहीं अपितु सभी शास्त्र-पुराणों में तथा सभी मतों में नग्नत्व की प्रशंसा की गई है। दिनाकि भगवान ने भी गणराशि नामक शास्त्र में कहा है कि दिगम्बरत्व से पवित्रता का निर्माण होता है। शंकर भगवान ने भी दिगम्बर वेष धारण किया था। अब यहां पर पुनः यह प्रश्न उठता है कि नग्न वेष से साधु या असाधु की क्या विशेषता है ? तो इस प्रश्न के उत्तर में हमारा मन ही मूल कारण है। जब हमारा मन निर्मल रहता है तब हम दोष नहीं देखते तथा यदि हम विचार करें कि कहां कल्याण की प्राप्ति है तो नग्नत्व में ही देखते हैं । अर्थात् जो निरभिमानी, निष्पाप तथा समता भाव धारण करने वाले हैं उनके मध्य में नग्नत्व कुछ भी प्रतिकूल नहीं मालूम पड़ता। परन्तु जो सशंकित हैं या जिनका मन सदा पाप का ही चिन्तन किया करता है तथा जो अहनिश बाह्य पर-पदार्थों में ही उलझे रहते हैं उनके मन में नैसगिक विकार रहता है और वे ही स्वयं विकारी होने के कारण सर्वत्र सभी में दोषान्वेषण किया करते हैं। इस प्रकार नग्नता परम पवित्रता की द्योतक है। ऐसे गुरुदेव हमारे परम आराध्य हैं । अतः ऐसे पुरुषों के पाद पद्यों में हम बार-बार नमस्कार करते हैं और सदा यही सद्भावना करते हैं कि इसी प्रकार हमें सत्संग का लाभ प्राप्त होता रहे तथा सभी बन्धुओं से नम्र निवेदन है कि आप लोग भी इसी प्रकार अपनी सद्भावना रखकर अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें।" धर्म प्रभावना के उद्बोधनात्मक स्वर आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज ने जैनधर्म के इतिहास का गम्भीर चिन्तन-मनन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि जैनधर्मानुयायियों को राष्ट्रकल्याण एवं लोकोपकार की प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर धर्म की प्रभावना हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए। चिन्तन एवं मनन के विविध क्षणों में आचार्यश्री के तेजोद्दीप्त नयनों के सम्मुख अनेक बार जैनधर्म का गौरवमय अतीत अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक वैभव के साथ साकार हो उठता है । वर्तमान में जैनधर्मानुयायियों की अल्पसंख्या तथा धर्मपरायणता के प्रति उनकी उदासीनता से उनका मन पीड़ित हो जाता है। श्री दिगम्बर जैन लाल मन्दिर जी, दिल्ली में भाद्रपद शुक्ला १३, दिनांक ३१ अगस्त, १९५५ को एक धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने श्रावक समाज के उद्बोधन हेतु उनका मार्गदर्शन करते हुए कहा था ___ "जिस धर्म का प्रचार जितना अधिक हुआ करता है उस धर्म के अनुगामी उतने ही अधिक होते जाते हैं तथा जो धर्म प्रचार में जितना पिछड़ जाता है उसके अनुयायियों की संख्या भी उतनी ही कम हो जाती है । जैन धर्म का प्रचार भगवान महावीर ने अपने समय में इतना किया कि उनके नाम पर बर्द्धमान, वीरभूम, सिंहभूम, मानभूम आदि अनेक नगरों का नामकरण हुआ। भारत में जैनधर्म राजधर्म के रूप में बन गया। अहिंसा धर्म की ध्वजा समस्त भारत में फहराने लगी। भगवान महावीर का निर्वाण हो जाने पर उनकी शिष्य परम्परा ने भी जैनधर्म का बहुत प्रचार किया। सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में ४२ हजार जैन साधुओं का विशाल संघ तो केवल मालवा में था। द्वादशवर्षी दुर्भिक्ष आने से पहले आचार्यश्री भद्रबाह के नेतृत्व में हजारों जैन साधुओं का संघ दक्षिण भारत की ओर विहार कर गया। सम्राट् चन्द्रगुप्त ने भी जैन साधु की दीक्षा लेकर उन्हीं साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार किया। हजारों साधुओं का मालवा में रहना और हजारों साधुओं के संघ का उत्तर भारत से विहार करते हुए दक्षिण भारत को जाना इस बात का साक्षी है कि उस समय उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में जैनधर्म का बहुत प्रचार था। बहुत बड़ी संख्या में जैनधर्मानुयायी भारत में उस समय थे, तभी हजारों साधुओं के शुद्ध खान-पान, विहार, ठहरने आदि की सुव्यवस्था उस जमाने में अनायास हो जाती थी। किन्तु आज जब हम इस ओर दृष्टिपात करते हैं तब बहुत निराशा होती है। इस समय दिगम्बर साधु केवल ३७-३८ हैं। उनमें भी क्षति होती जा रही है। शारीरिक, कालिक एवं क्षेत्र सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों के कारण नवीन साधुओं का होना दुर्लभ नजर आता है । अत: जैनधर्म का प्रचार बहुत कम हो गया है। जैनधर्म के महान् प्रचार को सम्पन्न करने के लिये सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में से आठवां अंग 'प्रभावना' बतलाया गया है। प्रभावना अंग का मूल उद्देश्य जैनधर्म को व्यापक बनाना था। किन्त और समाज ने इस ओर इतनी उपेक्षा की है कि हमारी पड़ोसी जनता भी अनभिज्ञ है कि जैनधर्म क्या वस्तु है। करोड़ों भारतीय स्त्री-पुरुष भी जैनधर्म से अपरिचित हैं। भारतीय जैनेतर विद्वानों में से अधिकांश जैनधर्म से अनभिज्ञ हैं। जैन सिद्धान्त का साधारण परिज्ञान भी विरलों को होगा। तब विदेशों में तो जैनधर्म को कौन कितना समझता होगा! संसार के सबसे प्राचीन, सबसे प्रमुख, सिद्धान्त और आचार की दृष्टि से सबसे अग्रेसर धर्म प्रसिद्धि में इतना पीछे ! यह सब प्रचार की कमी का परिणाम है।" कालजयी व्यक्तित्व ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy