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लिए सैकड़ों स्कूल, अनाथालय, कॉलेज, बोडिङ्ग, अस्पताल आदि खोल रक्खे हैं जिनमें पढ़-लिखकर, आश्रय पाकर हजारों व्यक्ति आराम से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जिस भारत में ४००-१०० वर्ष पहले एक भी ईसाई नहीं था उस भारत में आज ६०-७० लाख ईसाई हैं।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १८६) जैन धर्म, दर्शन और इसकी सांस्कृतिक सम्पदा के वैभव का उल्लेख करते हुए आचार्यश्री ने महात्मा यीशुमसीह के भारत आगमन और जैन साधुओं से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के ऐतिहासिक तथ्यों को समाज के सम्मुख इस भावना से रखा है कि वे अपने महान् जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में सक्रिय होकर गौरव का अनुभव करें।-"महात्मा यीशु भगवान् महावीर से लगभग पांच सौ वर्ष पीछे हुए हैं। उनका २६ वर्ष का प्रारम्भिक समय अज्ञात है। अनेक ऐतिहासिक विद्वानों के मतानुसार महात्मा ईसा भारत में आये थे
और उन्होंने भारत में जैन साधुओं से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। जैन साधुओं के तप, त्याग, संयम से ईसा अच्छे प्रभावित थे। तदनन्तर उन्होंने पश्चिमी देशों में अपने मनोनीत धर्म का प्रचार किया।"
(उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ३४१) __ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी को अपनी राष्ट्रव्यापी पदयात्राओं में समय-समय पर धर्मपरिवर्तन के अनेक प्रसंगों का विवरण प्राप्त होता रहा है। जनसामान्य के आर्थिक बैषम्य, उदराग्नि की विकराल समस्याओं से वे भलीभांति परिचित हैं। इन सभी समस्याओं को देखते हुए उन्होंने सम्यग्दर्शन के अंग वात्सल्य एवं स्थितिकरण को अपनाकर समाज के एक भी व्यक्ति को धर्मविमुख होने से रोकने के लिए श्रावकों को प्रेरित किया है । इस सम्बन्ध में उन्होंने विभिन्न धर्मसभाओं में प्रवचन करते हुए जहाँ भी अवकाश मिला है वहीं जैन धर्म की प्रतिष्ठा और इसे सुदृढ़ करने के विभिन्न उपायों का संकेत किया है। आचार्यश्री द्वारा दिए गए इन उद्बोधनों में से कुछ इस प्रकार हैं
(१) "धर्म से चलायमान होने वाले स्त्री-पुरुषों को तत्काल सम्भालने की बहुत भारी आवश्यकता है, जिससे वे धर्म से विचलित न होकर धर्म पालन में स्थिर हो जाएँ। इस कार्य में विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि धर्म परिवर्तन करने वाला जब तक अन्य धर्मानुयायियों या अधर्मी मनुष्यों के समागम में अच्छी तरह खुलकर नहीं आ पाता तब तक वह समझाने-बुझाने से तथा आवश्यकताएं पूरी कर दिये जाने से अपने समाज में उसके पुनः आ जाने की सम्भावना बनी रहती है । यदि कुछ समय उसको विधर्म में रहने दिया जाय तो धर्म परिवर्तन के उसके विचार पक्के हो जाते हैं। इस दशा में उसके पुनः अपने धर्म में लौट आने की आशा नहीं रहती।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १८८) (२) “इस कार्य में लापरवाही भी न करनी चाहिए क्योंकि जिस तरह एक व्यक्ति की वृद्धि होने से समाज की शक्ति में वृद्धि होती है उसी तरह एक व्यक्ति के कम हो जाने से अपना समाज का बल भी कम हो जाता है। एक-एक बूंद पानी के घड़े में पड़ते रहने से घड़ा भर जाता है और एक-एक बूंद पानी घड़े से निकलता है तो घड़ा खाली हो जाता है।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १८८) (३) "व्यापार करो, उद्योग-धन्धे चालू करो; धन उपार्जन के जो भी अच्छे उपाय हैं उनको काम में लाओ, किन्तु एक तो उनमें अन्याय, अनीति रंचमात्र भी न करो...दूसरे धर्म साधन में जरा भी कमी न आने दो। जिस कार्य में प्राणिघात हो, किसी दीन दरिद्र निर्धन का हृदय दु:ख ना हो उस धन्धे को न करो । अहिंसा तथा दया की उपेक्षा करके धन संचय करना अनुचित है।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ २७)
(४) “परमपूज्य जिनेन्द्रदेव के उपासक बनकर शान्त अहिंसक बनो, किन्तु अपने भुलाए हुए क्षात्र धर्म को फिर से अपनाओ, अपनी सन्तान को निर्भय एवं बलवान बनाओ, स्वयं बलवान बनो । धर्म तथा धर्मायतन की रक्षा के लिए प्राणों का मोह छोड़ देना आवश्यक प्रतीत हो तो वैसा भी करो। स्त्रियों, दीन-दुखियों की रक्षा के लिए सर्वस्व अर्पण करना पड़े तो उससे भी न चको।... अनेक जैन रानियों ने भी बड़ी वीरता से अपने धर्म तथा राज्य की रक्षा की थी । तुम भी वीरता से जीना सीखो।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ २७) (५) "श्रावकों का कर्तव्य है कि सदा दीन दुःखी जीवों पर अनुकम्पा करके उनके दु:ख दूर करते रहें। अपने घर पर यदि कोई भूखा आए तो स्वयं अपना भोजन उसको करा दो। पशु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा कोई भी जीव हो सदा सब पर दया करते रहो। जैनधर्म दया पर आश्रित है । अतः संसार के दुःखी जीवों का अपनी शक्ति के अनुसार दुःख मिटाना प्रत्येक जैन धर्मानुयायी का कर्तव्य
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ ८६)
कालजयी व्यक्तित्व
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