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________________ १५. चिलाती पुत्र-कथा । (गाथा १५५३) १६. चाणक्य मुनि-कथा। (गाथा १५५६) अन्य सन्दर्भ-महाभारत, रामायण (गा० ६४२), वैदिक सन्दर्भो में स्त्री, गाय एवं ब्राह्मणों की अवध्यता (गा० ७९२), निमित्त शास्त्र के अंग, स्वरादि ८ भेद (पृ. ४५०), काम की दस अवस्थाएँ (गाथा ८८२-६५), अंगसंस्कार (गा० ६३), कृषि-उपकरण (गा० ७९४), मन्त्र-तन्त्र (गा० ७६१-६२), आयातित सामग्रियों में तुरूष्क तेल (गा० १३१७), विविध निषद्याएं (गा० १९६८-७३), विविध वसतिकाएँ एवं संस्तर (गा. ६३३-६४६), कथाओं के भेद (गा० ६५१ एवं १४४०, १६०८), अपराधकर्म (गा० १५६२-६३, ८६४-५२) तथा स्त्रियों के विविध हाव-भाव (गा० १०८६-६१) आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार मूलाराधना में उपलब्ध सांस्कृतिक सन्दर्भो की चर्चा की गई। किन्तु यह सर्वेक्षण समग्र एवं सर्वाङ्गीण नहीं है, ये तो मात्र उसके कुछ नमूने हैं, क्योंकि संगोष्ठी के सीमित समय में इससे अधिक सामग्री के प्रस्तुतीकरण एवं उसके विश्लेषण की स्थिति नहीं आ सकती। ग्रन्थ के विहंगावलोकन मात्र से भी मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मूलाराधना निस्सन्देह ही सिद्धांत, आचार, अध्यात्म तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ-सामग्रियों का कोष-ग्रन्थ है। उत्तर भारत की आधुनिक भारतीय भाषाओं के उदभव एवं विकास तथा उनके भाषावैज्ञानिक अध्ययन करने की दृष्टि से भी मूलाराधना का अपना महत्त्व है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि शोध-जगत में वह अद्यावधि उपेक्षित ही बना रहा। इस पर तो ३-४ शाध-प्रबन्ध सरलता से तैयार कराए जा सकते हैं।' भारतीय संस्कृति : लोक मंगल का स्वरूप भारत जैसी मिश्रित संस्कृति, जिसमें इतने विरोधी सिद्धान्तों को स्थान मिला, अपने आरम्भ से ही बहुत सहनशील प्रकृति की थी। इतना ही नहीं, इस संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सिद्धान्तों को स्वीकार करने में, (विशेषतः अध्यात्म के सम्बन्ध में) यह बहुत ही तर्कपूर्ण रही है। दूसरे की स्थिति या उसके दृष्टिकोण के सम्बन्ध में समादर की भावना एक भारतीय के लिए वहत ही स्वाभाविक है। भारतीय मस्तिष्क के प्रतीक भारतीय साहित्य के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति ने अपनी प्रांजल अभिव्यंजना के रूप में महत् दर्शन और महती कला को सपनाया, और इन सभी में भारतेतर मानवता के लिए भी सन्देश है। भारत ने उदासीन भाव से आक्रमणकारियों का स्वागत किया, और उन्हें जो कुछ देना था भारत ने लिया, और उनमें से बहुतों को तो भारत आत्मसात् करने में भी सफल हुआ। उसने बाह्य जगत् को भी, केवल कला, विद्या, और विज्ञान ही नहीं अपितु अध्यात्म का बहुमूल्य उपहार, अपनी प्रकृति, सामाजिक दर्शन, मानवता के कष्टों का हल, जीवन के पीछे छिपे शाश्वत सत्य की प्राप्ति आदि अपनी सर्वोत्तम भेंट दी। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्म के आदर्श सिद्धान्तों ने एक ऐसे पथ का निर्माण किया जिस पर चल कर भारत ने अतीत में मानवता की सेवा की, और अब भी कर रहा है । भारत ने इस्लाम के रहस्यवादी दर्शन एवं सूफी मत को कुछ तत्त्व दिये; और जव ये तत्त्व पश्चिम की इस्लामी भूमि में विशिष्ट रूप धारण कर चुके तो फिर पुन: लिये भी। इसके पास जो भी विज्ञान या सायंस था, विशेषत: गणित, रसायनशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र में, इसने पश्चिम को दिया; और अब इस क्षेत्र में भी मानवता की साधारण पैत्रिक सम्पत्ति को धनवती बनाना चाहता है। डॉ. सुनितिकुमार चाटुा के निबन्ध 'भारत की आन्तर्जातिकता' से साभार नेहरू अभिनंदन-ग्रंथ पृ० सं० ३१३ १. पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला (पंजाब) द्वारा दिनांक १७-१६ अक्टुबर १९७९ को मायोजित अखिल भारतीय प्राच्य जन विद्या संगोष्ठी में प्रस्तत एवं प्रशंसित शोध निबन्ध । आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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