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अर्थात् गुणहीन व्यक्ति यदि अपनी स्तुति भी करे तो क्या वह गुणी बन जाता है ? यदि कोई षंढ-नपुंसक स्त्री के समान हाव-भाव करता है तो क्या वह स्त्री बन जाता है ?
दृष्टान्तालंकार की योजना कवि ने एक कोढ़ी व्यक्ति का उदाहरण देकर की है। वह कहता है कि जिस प्रकार कोढ़ी व्यक्ति अग्निताप से भी उपशम को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार विषयाभिलाषा भोगासक्ति को शान्त करने वाली नहीं, बल्कि बढ़ाने वाली ही है
जह कोढिल्लो अग्गि तप्पंतो व उवसमं लभदि ।
तह भोगे भुंजतो खणं पि णो उबसमं लभदि ॥ गा० १२५१. शब्दावली-मूलाराधना की भाषा-शैली यद्यपि सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक है, उसमें पारिभाषिक शब्दावलियों के ही प्रयोग किए गए हैं । फिर भी लोक भाषा के शब्द भी प्रचुर मात्रा में व्यवहृत हुए हैं । इनसे तत्कालीन शब्दों की प्रकृति एवं अर्थ-व्यञ्जना तो स्पष्ट होती ही है, आधुनिक भारतीय भाषाओं के उद्भव एवं विकास तथा भाषावैज्ञानिक अध्ययन करने की दृष्टि से भी उनका अपना विशेष महत्त्व है। कुछ शब्दावली ऐसी भी है, जिसका प्रयोग आज भी उसी रूप में प्रचलित है। यथा कुट्टाकुट्टी (गाथा १५७१), थाली (गाथा १५५२), बिल (गाथा १२), कोई (गाथा १८३०) चुण्णाचुण्णी (चूर-चूर, गाथा १५७१), तत्त (बुन्देली एवं पंजाबी तत्ता-गर्म, गाथा १५६६), खार (क्षार, गाथा १५६९), गोट्ठ (गाथा १५५६), चालनी (गाथा १५५३), उकड़ (गाथा २२४), वालुयमुट्ठी (गाथा १७५६)।
सूर्य के गमन की स्थिति को देखकर चलने वाले अणुसरी, पडिसरी, उडुसरी एवं तिरियसरी कहे जाते थे। कड़ी धूप के समय पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर चलने वाला अणसरी, पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर चलने वाला पडिसूरी, दोपहर के समय चलने वाला उड्डसूरी एवं सूर्य को तिरछा कर चलने वाला तिरियसूरी कहलाता था (दे० गाथा २२२, पृ० ४२७) ।
जैन कथा-साहित्य का आदि स्रोत-मूलाराधना जैन कथा साहित्य का आदि स्रोत माना जा सकता है। उसमें लगभग ७२ ऐसे कथा-शीर्षक हैं, जो नैतिक अथवा अनैतिक कार्य करने के फल की अभिव्यक्ति हेतु प्रस्तुत किए गए हैं। चूंकि मूलाराधना एक सिद्धांत ग्रन्थ है, कथा-ग्रन्थ नहीं, अत: उसमें कथा-शीर्षक देकर कुछ नायक एवं नायिकाओं के उदाहरण मात्र ही दिए जा सकते थे, दीर्घकथाएँ नहीं। उन शीर्षकों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वे कथाएं प्राचीन काल से ही चली आ रही थीं और उन्हीं में से शिवार्य ने आवश्यकतानुसार कुछ शीर्षक ग्रहण किए थे। परवर्ती कथाकार निश्चय ही शिवार्य से प्ररित रहे, जिन्होने आगे चलकर उन्हीं शीर्षकों के आधार पर बृहत्कथाकोष, आराधनाकथा-कोष पुण्याश्रव कथा कोष, आदि जैसे अनेक कथा-ग्रन्थों का प्रणयन किया । मूलाराधना के कुछ कथा-शीर्षक निम्न प्रकार हैं
१. नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से अज्ञानी सुभग ग्वाला मरकर चम्पानगरी के वृषभदत्त सेठ का पुत्र बनकर उत्पन्न हुआ।
(गाथा ७५६) २. यम नाम का राजा मात्र एक श्लोक खण्ड का स्वाध्याय कर मोक्षगामी बना । (गाथा ७७२)
अल्पकालीन अहिंसा-पालन के प्रभाव से शिंशुमार-सरोवर में प्रक्षिप्त चाण्डाल मरकर देव हुआ। (गाथा ८२२) ४. गोरसंदीव मुनि १२ वर्ष तक कायसुन्दरी गणिका के सहवास में रहा, किन्तु उसके पैर के कटे अंगूठे को वह नहीं
देख पाया। (गाथा ६१५) ५. कामी कडारपिंग। (गाथा ६३५) ६. अत्यन्त सुन्दर पति राजा देवरति का त्याग कर रक्ता रानी गान-विद्या में निपूण एक लंगड़े से प्रेम करने लगी।
(गाथा ६४६) ७. वेश्यासक्त सेठ चारुदत्त । (गाथा १०८२) ८. वेश्यासक्त मुनि शकट एवं कूपार । (गाथा ११००) ६. मधुविन्दु दर्शन । (गाथा १२७४) १०. पाटलिपुत्र की सुन्दरी गणिका गन्धर्वदत्ता। (गाथा १३५६) ११. द्वीपायन मुनि का कोप एवं द्वारिका दहन । (गाथा १३७४) १२. एणिका पुत्र यति । (गाथा १५४३) १३. मुनि भद्रबाहु कथा। (गाथा १५४४) १४. मुनि कार्तिकेय। (गाथा १५४६)
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