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________________ ५. ससित्य-चावल के कण सहित मौड़ । ६. असित्थ-चावल के कण रहित मांड़ । अस्त्र-शस्त्र--- मूलाराधना में अस्त्रों-शस्त्रों के उल्लेख भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। उन्हें ५ भागों में विभक्त किया जा सकता है। (१) प्रहारात्मक शस्त्रास्त्रों में-मुग्दर', भुशुंडि', गदा, मुशल, मुष्टि", यष्टि', लोष्ट', दण्ड एवं घन' के नामोल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार छेदक शस्त्रास्त्रों में - शूल', शंकु", शर", असि", छुरिका", कुन्त५, तोमर, चक्र", परशु एवं शक्ति", और भेदक, कर्त्तक एवं रक्षक में क्रमशः पाषाणपट्टिश, करकच एवं कवच' के उल्लेख मिलते हैं । यन्त्र-मूलाराधना में तीन प्रकार के यन्त्रों के उल्लेख मिलते हैं। इन्हें देखकर उस समय के वैज्ञानिक आविष्कारों की सूचना मिलती है। ग्रन्थकार ने उनके नाम इस प्रकार बतलाए हैं १. पीलन-यन्त्र -जिसमें पेरकर अपराधी को जान से मार डाला जाता था। २ तिलपोलन यन्त्र -तिल का तेल निकालने वाला यन्त्र । ३. इच्छुपीलन यन्त्र - इक्षुरस निकालने वाला यन्त्र । प्रतीत होता है कि प्रथम प्रकार के यन्त्र पर प्रशासन का नियन्त्रण रहता होगा और भयंकर अपराधकर्मी को उस यन्त्र के माध्यम से मृत्युदण्ड दिया जाता रहा होगा । अन्य दो यन्त्र सामान्य थे, जिन्हें आवश्यकतानुसार कोई भी अपने घर रख सकता था। लोक-विश्वास-समाज में तन्त्र, मन्त्र एवं अन्य लौकिक विद्याएँ निरन्तर ही प्रभावक रही हैं। इनके बल पर तान्त्रिकों एवं मान्त्रिकों ने लोकप्रियता प्राप्त कर अन्धश्रद्धालु वर्ग पर अपना प्रभुत्त्व स्थापित कर लिया था। ग्रन्थकार ने उनके कुछ रोचक सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से एक निम्न प्रकार है-क्षपक साधु के स्वर्गवास के समय उसके हाथ-पर एवं अंगूठा के कुछ अंश बांध देना अथवा काट देना चाहिए। यदि ऐसा न किया जायगा तो मतक शरीर में क्रीड़ा करने के स्वभाववाला कोई भूत-प्रेत अथवा पिशाच प्रवेश कर उस शव-शरीर को लेकर भाग जायगा ।५ आगे बताया गया है कि शिविका की रचना कर बिछावन के साथ उस शव को बाँध देना चाहिए। उसका माथा घर अथवा नगर की ओर होना चाहिए, जिससे यदि वह उठकर भागे भी, तो वह घर अथवा नगर की ओर मुड़कर न भाग सके । २६ साहित्यिक दृष्टि से-मूलाराधना केवल धार्मिक आचार का ही ग्रन्थ नहीं है, साहित्यिक दृष्टि से अध्ययन करने पर उसमें विविध काव्यरूप भी उपलब्ध होते हैं। काव्यलेखन में जिस भावुकता, प्रतिभा, मनोवैज्ञानिकता तथा रागात्मकता की आवश्यकता है, वह शिवार्य में विद्यमान है। उपयुक्त विविध अलंकारों के प्रयोगों के साथ-साथ भावानुगामिनी भाषा एवं वैदर्भी शैली मूलाराधना की प्रमुख विशेषताएँ हैं । जो साधु बाह्याडम्बरों का तो प्रदर्शन करता है, किन्तु अपने अन्तरंग को साफ नहीं रखता, देखिए, कवि ने उपमा के सहारे उसका कितना मार्मिक वर्णन किया है घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किसे काहिदि बगणिहुदकरणस्स ॥ गा० १३४७ अर्थात् जो साधु बाह्याडम्बर तो धारण करता है, किन्तु अपना अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, वह उस घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से तो सुन्दर, सुडौल एवं चमकीली दिखाई देती है, किन्तु भीतर से बह अत्यन्त दुर्गन्धपूर्ण है । ऐसे साधु का आचार बगुले के समान मिथ्या होता है। आत्म-स्तुति अहंकार की प्रतीक मानी गई है । भारतीय संस्कृति में उसकी सदा से निन्दा की जाती रही है। शिवार्य ने ऐसे व्यक्ति की षंढ से उपमा देते हुए कहा है णय जायंति असंता गुणा विकत्थयंतस्स पुरिसस्स । घंसिह महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव ।। गाथा ३६२ ।। १-२. दे० गाथा १५७१. ३. दे. गाथा १५७१ की सं० टी० पु. १४३७. ४-२२. दे० गाथा ८५८, १५७१, १५७५-७६, १६८१ एवं सं. टीकाएं २३. दे० गाथा १५५५. २४. ३० गाथा ६३३. २५. दे० गाथा १९७६-७६ एवं उसकी सं०टी०. २६. दे० गाथा १९८०-८१. भाचार्यरत्न भी वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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