SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सरस्वती प्रतिमाओं का उद्भव एवं विकास सरस्वती की पूजा-आराधना जैन, हिन्दू एवं बौद्ध धर्मों में अत्यन्त प्राचीन काल से समान रूप से प्रचलित रही है । सरस्वती समस्त ज्ञान, विद्या, संगीत, कला एवं विज्ञान की प्रमुख अभिष्ठात्री मानी जाती है । सरस्वती एक प्रमुख नदी का नाम भी था जिसका अब पूर्णतया लोप हो गया है और इसका केवल एक मात्र अंकन हमें महाराष्ट्र राज्य के एलौरा को प्रसिद्ध गुहाकों में मिलता है जिसका निर्माण बाकाटक युग व शती ई० में हुआ था हिन्दू धर्म में सरस्वती की पूजा वाग्देवी आदि नामों से की जाती थी और मध्यकालीन मूर्ति कला में इन्हें ब्रह्मा की पत्नी के रूप में विशेषतया दिखाया जाता था। पूर्वी भारत की पाल कला में सरस्वती को लक्ष्मी सहित विष्णु की पत्नी के रूप में प्रदर्शित किया जाता था । भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में एक अद्वितीय प्रस्तर पालकालीन मूर्ति विद्यमान है, जिसमें कि ब्रह्मा के साथ सरस्वती एवं सावित्री का अंकन भी मिलता है। बौद्ध साहित्य में सरस्वती के अनेक नामों में ब-शारदा, महासरस्वती, वार्याव सरस्वती तथा वण-वीणा-सरस्वती आदि का विशेष रूप से वर्णन मिलता है। धातु निर्मित पालकालीन 8वीं शती ई० की नालन्दा से प्राप्त एक सुन्दर सरस्वती मूर्ति अब राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में विद्यमान है । नृत्य-सरस्वती की दो विलक्षण प्रतिमाएं मध्य प्रदेश के उदयेश्वर मन्दिर तथा कर्णाटक के हेले विद देवालय पर देखी जा सकती हैं। जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर सरस्वती का उल्लेख मिलता है। 'भारतीकल्प' के लेखक मल्लिषेण ने सरस्वती की आराधना करते लिखा है कि "हे देवि, सांख्य, चार्वाक्, मीमांसक, सौगत तथा अन्य मत-मतान्तरों को मानने वाले भी ज्ञान प्राप्ति के लिए तेरा ध्यान करते हैं।"" 'आचारदिनकर' में तदेवता को तवर्णा श्वेतवस्त्रधारिणी, हंसवाहना, श्वेतसिंहासनासीना, भामण्डलालंकृता एवं चतुर्भुजा बताया गया है। देवी के बांए हाथों में श्वेतकमल एवं वीणा तथा दाएं हाथों में पुस्तक एवं मुक्ताक्ष माता का विधान बताया गया है"।" ऐसे ही तिलोयपणती, सरस्वतीकल्प, निर्वाणकलिका, शारदास्तवन पठितसिल्पसारस्वतस्तव एवं आचार्य हेमचन्द्र की अभिदानचिन्तामणि आदि जैन ग्रंथों में सरस्वती की प्रतिमा संबंधी महत्त्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं । सरस्वती की प्राचीनतम प्रस्तर प्रतिमा जो कुषाणकाल, २ री शती ई० की है, पुनीत स्थल कंकाली टीला, मथुरा से प्राप्त हुई थी और अब राज्य संग्रहालय, लखनऊ में प्रदर्शित है। इस शीशरहित मूर्ति में देवी एक ऊंची पीठिका पर बैठी दिखाई गई हैं तथा इनका दाहिना हाथ अभयमुद्रा व बाएं में वह एक पुस्तक पकड़े हुए हैं। इनके दोनों ओर एक-एक उपासक खड़ा है । कला की दृष्टि से यह मूर्ति अत्यन्त सादी है । मूर्ति की पीठिका पर उत्खनित अभिलेख से ज्ञात होता है कि सिंह के पुत्र गोव ने दान हेतु इसका निर्माण किया था । अभिलेख इस प्रकार है : १. २. Jain Education International (सि) दम् संव ५४ हिमन्समासे चतु ( ) ४ दिवसे १० अ पूर्वा कोट्टयात (ग) पातीस्थानी (प) तो कुलातो वैरातो शाखातो श्रीग्रह (T) तो सम्भोगातो वाचकस्यार्थ्या ३. ४. (ह) अस्त हस्ति शिष्यो गणिस्य अर्थ्य माघहस्ति श्रद्धचारो वाचकस्य अ ५. स्वं देवस्य निर्वसने गोवस्य सहिपुत्रस्य लोहिक कारुकस्य दानं ६. सर्व सत्वानं हितसुरवा एक (सर) स्वती प्रतिष्ठापिता असले ग (१) नतनो ७. मे १. बालचन्द्र जैन, जैन प्रतिमा विज्ञान, जबलपुर, १६७४, पृ० ५३. २. वही, पृ० ५४, १३७. ३. ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा, जैन प्रतिमाएं, दिल्ली, १६७६, पृ०७१-७२ चित्र २८. ४२ डा० ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा आवारत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy