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गहरे अभ्यासी और अत्यन्त निष्णात विद्वान्' हैं । उनकी टीकाओं ने कुन्दकुन्द के प्राभृतत्रय को चमका दिया है । कुन्दकुन्द के द्वारा आरोपित, अध्यात्मरूपी वृक्ष को सिञ्चित करके पुष्पित करने का काम अमतचन्द्र ने ही किया है। उन्होंने प्रत्येक गाथा पर जो भाष्य लिखा है वह सर्वथा आगमानुकल है और गाथा के हार्द को स्पष्ट करने वाला है। निश्चय और व्यवहार की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके पारस्परिक विरोध को मिटाने के लिए उनका एक सूत्ररूप कलश ही इसका उदाहरण है
उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्क
___जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्च
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।। समयसार की टीका में आगत पद्य जो 'समयसार-कलश' के नाम से ख्यात हैं, सममुच में अमृत-कलश हैं। उन कलशों में अध्यात्मरूपी अमृत भरा है।
ऐसे टीकाकार अमृतचन्द्र ने क्यों अपने टीका-ग्रन्थों में कुन्दकुन्द का नामनिर्देश तक नहीं किया, यह चिन्त्य है। इसके साथ ही उनके टीकाग्रन्थों की गाथा-संख्या में जयसेन के टीका-ग्रन्थों की गाथा-संख्या से अन्तर होने का कारण भी समझ में नहीं आता। सन्तोष के लिए यही मानना पड़ता है कि उन्हें जो प्रतियां प्राप्त हुई, उनमें इतनी ही गाथाएँ रही होंगी। किन्तु इस पर से यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जयसेन के सम्मुख अमृतचन्द्र की टीका के रहते हुए भी अधिक गाथाएं उन्हें कहाँ से प्राप्त हो गई?
और इस पर से यह सन्देह भी हो सकता है कि उन्हें अमृतचन्द्र ने क्या जानबूझकर छोड़ दिया? और यदि ऐसा किया तो क्यों किया? प्रवचनसार के तीसरे चारित्राधिकार में गाथा २४ के बाद ग्यारह गाथाएँ स्त्रियों के मुक्तिनिषेध से सम्बद्ध हैं जो जयसेन की टीका में पायी जाती हैं किन्तु अमृतचन्द्र की टीका में नहीं हैं । डा० उपाध्ये ने अपनी प्रस्तावना में जो यह लिखा है कि यदि अमृतचन्द्र काष्ठासंघी हैं तो कुछ गाथाओं के उनकी टीका में न पाये जाने पर सुविधापूर्वक प्रकाश डाला जा सकता है । इसमें उनका संकेत उक्त गाथाओं की ओर प्रतीत होता है क्योंकि देवसेन के दर्शनसार के अनुसार काष्ठासंघ स्त्री-दीक्षा को स्वीकार करता है। किन्तु काष्ठा संध स्त्री-मुक्ति मानता था, इसका कहीं से भी समर्थन नहीं होता । अत: अमृतचन्द्र की टीका में उक्त गाथाओं के न पाये जाने से यह कल्पना करना उचित नहीं है कि वह काष्ठासंधी थे या स्त्री-मुक्ति मानते थे।
डा० उपाध्ये ने लिखा है, "मेरा अनुमान है कि अमृतचन्द्र अति आध्यात्मिक थे और वह साम्प्रदायिक वाद-विवाद में पडना पसन्द नहीं करते थे। तथा सम्भवतया वह अपनी टीका को आचार्य कन्दकुन्द के उत्कृष्ट मन्तव्यों को लेकर ऐसी बनाना चाहते थे जो सब सम्प्रदायों को स्वीकार हो और तीक्ष्ण साम्प्रदायिक आक्रमणों से अछुती हो (प्रव. प्रस्ता०, प०५१)
अपनी प्रस्तावना टिप्पण पाँच (१० ५१) में अमृतचन्द्र के श्वेताम्बर होने की संभावना का निराकरण करते हुए डा० उपाध्ये ने लिखा है : “अमृतचन्द्र अट्ठाईस मूलगुण स्वीकारते हैं जिनमें एक नग्नता भी है । वह प्रवचनसार (३/गाथा ४,६,२५) में आये साध के जहजाद रूव' (नग्न-पद) को स्वीकारते हैं तथा अपने तत्त्वार्थसार में विपरीत मिथ्यात्व का स्वरूप बतलाते हुए लिखते हैं
सग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो ग्रासाहारी च केवली ।
रुचिरेवविधा यत्र विपरीतं हि तत् स्मृतम् ॥ "जहां सग्रन्थ को निम्रन्थ और केवली को ग्रासाहारी माना जाता है, यह विपरीत मिथ्यात्व है।" उक्त दोनों बातें श्वेताम्बर मानते हैं। अतः अमृतचन्द्र के मत से वे 'विपरीत मिथ्यादृष्टि' हैं।
हमारे मत से प्रवचनसार जैसे क्रमबद्ध दार्शनिक ग्रन्थ में कुन्दकन्द जैसे सिद्धहस्त ग्रन्थकार स्त्री-दीक्षा के विरोध में इतनी गाथाएँ नहीं लिख सकते । लिंगपाहुड एवं भावपाहुड आदि में भी उन्होंने बहुत सन्तुलित शब्दों में ही सवस्त्र मुक्ति और स्त्री-मुक्ति के विरोध में लिखा है। उनके प्राभूतत्रय रत्नत्रय हैं, अतः रत्नों के पारखी अमृतचन्द्र ने भी प्राञ्जल टीका की आभा से उन रत्नों को ऐसा चमका दिया कि विस्मृत-जेसे कुन्दकुन्द जैनाकाश में सूर्य की तरह प्रकाशित हो उठे। यदि अमृतचन्द्र ने अपनी टीकाएँ न रची होती, तो कौन कह सकता है कि कुन्दकुन्द एक हजार वर्ष की तरह आगे भी विस्मृति के गर्त में न पड़े रहते ?
अमतचन्द्र की टीका से प्रभावित होकर ही जयसेन ने भी तीनों प्राभूतों पर अपनी टीकाएँ लिखीं। और जयसेन की संस्कृत टीकाओं से प्रभावित होकर बालचन्द्र ने कनड़ी में टीका लिखी। और इस तरह कुन्दकुन्द के अध्यात्म की त्रिवेणी सर्वत्र प्रवाहित हो गई। इसका मुख्य धेय अमतचन्द्रको ही प्राप्त होता है।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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