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हुए हैं। प्रवचनसार के चारित्राधिकार में गाथा २४ और २५ के बीच कुछ गाथाएँ जयसेनाचार्य की टीका में हैं जिनमें स्त्री के संयम का निषेध किया है। उनपर अमृतचन्द्र की टीका नहीं है । इस पर से ऐसी कल्पना की जा सकती हैं कि चूंकि काष्ठा संघ स्त्री-दीक्षा का पक्षपाती है और अमृतचन्द्र काष्ठासंघी थे, इसीसे उन्होंने उनपर टीका नहीं रची। किन्तु हमें इस कल्पना में कुछ सार प्रतीत नहीं होता; क्योंकि अमृतचन्द्र जी ने कुन्दकुन्द के द्वारा प्रतिपादित साधु के अट्ठाईस मूल गुणों को स्वीकार किया है। गाथा ३.१६ में कुन्दकुन्द कहते हैं कि परिग्रह से संबन्ध अवश्य होता है इसीलिए श्रमणों ने उसे छोड़ दिया। इसकी टीका में अमृतचन्द्र लिखते हैं - "परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता है । उसका परिग्रह के साथ सर्वथा अविनाभाव संबंध है। अत: परिग्रह एकान्त से बन्धरूप है। इसी लिए भगवन्त अर्हन्तों ने, परम श्रमणों ने स्वयं ही सभी परिग्रह को पहले छोड़ा। और इसीलिए दूसरों को भी प्रथम ही सब परिग्रह छोड़ने योग्य हैं।" आगे भी पाह की निन्दा के सम्बन्ध में जितनी गाथाएं हैं, सबपर अमृतचन्द्र की टीका है। ऐसी स्थिति में स्त्री-दीक्षा का पक्षपात संभव नहीं है । असल में प्रवचनसार की रचनाविधि को देखते हुए यह संभव प्रतीत नहीं होता कि कुन्दकुन्द स्त्री-दीक्षा के निषेध पर यहां दस गाथाएँ रचेंगे, इसके कथन के लिए लिंगप्राभूत, भावप्राभूत आदि रखे गये हैं। अत: अमतचन्द्र जैसा कुन्दकुन्द का व्याख्याता, जिसने अपनी विद्वत्तापूर्ण व्याख्याओं के द्वारा कुन्दकुन्द के कृतिरूपी प्रासादों पर कलशारोहण किया है, आचार्य कुन्दकुन्द की मान्यताओं की अवमानना करने वाला नहीं हो सकता । यदि कुन्दकुन्द के प्रति उनकी गहरी आस्था नहीं होती, तो वे उनकी कृतियों पर इतनी विशद पाण्डित्यपूर्ण और ग्रन्थानुगामिनी टीकाएँ न रचते । अवश्य ही उनको कुन्दकुन्दत्रयी पढ़ने के पश्चात् वस्तुतत्त्व की यथार्थस्थिति का सम्यक् अवबोध हुआ है जिससे उनके अन्तःकपाट उद्घाटित होकर अन्तःकरण शान्तरस से आप्लवित हुआ है।
। उनको व्याख्या का लक्ष्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की शाब्दिक व्याख्या नहीं रहा, वे तो उसमें रहे निगढ़ तत्त्व को उद्घाटित करके पाठक के सामने रख देना चाहते थे। उनकी भाषा भी भाव के ही अनुरूप है। संस्कृत के सरस प्रौढ़ गद्य और पद्य में अध्यात्म की सरिता का प्रवाह शान्त धीर गति में प्रवाहित होता हुआ उसमें अवगाहन करने वाले सुविज्ञ पाठक को भी अपने साथ प्रवाहित कर लेता है और सुविज्ञ पाठक भी उसमें निमग्न होकर अपने बाह्य रूप को भूल स्वानुभूति से आप्लावित हो जाता है।
इसमें सन्देह नहीं कि कुन्दकुन्द की रचना प्राकृत में होकर भी दुरूह नहीं है। उन्होंने बहुत ही सरल शब्दों में अपनी बात कही है । किन्तु अमतचन्द्र की भाषाशैली दुरूह है । संस्कृत भाषा का प्रौढ़ पण्डित ही उसमें प्रवेश करने का साहस कर सकता है। किन्तु संस्कृत भाषा का प्रौढ़ पंडित होकर भी यदि वह अनेकान्त तत्त्व की बारीकियों से सुपरिचित नहीं है तो भी उसके हाथ कुछ नहीं लग सकता । अमृतचन्द्र का अपने विषय पर पूर्ण अधिकार है । वे अनेकान्त तत्त्व के अधिकारी विद्वान हैं और उसके प्रयोग में अत्यन्त कुशल हैं।
डा० ए० एन० उपाध्ये ने रायचन्द्र शास्त्रमाला, बम्बई से प्रकाशित प्रवचनसार की अपनी विद्वत्तापूर्ण अंग्रेजी प्ररताना(T• ६४) में भी उक्त चर्चा की है और उसके अन्त में लिखा है---
"यदि मेघविजय जी का कथन प्रामाणिक है तो अमृतचन्द्र काष्ठा संघ के हो सकते हैं । और यदि वे काष्ठासंघ के हैं, तो उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्दों और वाक्यांशों तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में से कुछ प्रामाणिक गाथाओं की उनकी टीकाओं में न पाये जाने पर सुविधापूर्वक प्रकाश डाला जा सकता है । किन्तु यह सब मात्र अनुमान पर निर्भर है।"
___ यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि अमृतचन्द्र की टोकाओं से जयसेन की टीकाओं में उपलब्ध गाथाओं की संख्या अधिक है। अमतचन्द्र की टीका के अनुसार पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार की गाथा-संख्या क्रमशः १७३, २७५ और ४१५ है। किन्तु जयसेन की टीका के अनुसार क्रमश: १८१, ३११ और ४३६ है।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द के आद्य टीकाकार हैं और जयसेन ने उनकी टीकाओं को आधार बनाकर ही अपनी टीकाएँ लिखी हैं । तथा दोनों के मध्य में कम से कम एक शताब्दी का अन्तराल अवश्य रहा है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि अमतचन्द्र ने अपनी टीकाओं में ग्रन्थकार कुन्दकुन्द का कोई निर्देश नहीं किया है । उन्होंने ग्रन्थकार के लिए पञ्चास्तिकाय की टीका के अन्त में 'अथैव शास्त्रकारः' इत्यादि लिखते हुए शास्त्रकार शब्द का प्रयोग किया है। इससे ऐसा सन्देह होता है कि जो प्रतियां उन्हें प्राप्त हुई उनमें कुन्दकुन्द का नाम न होगा। कुन्दकुन्द ने स्वयं तो अपनी कृतियों में अपना नाम दिया नहीं है । तथा उन ग्रन्थों से ही प्रभापित होकर अमृतचन्द्र ने उनकी टीका लिखी होगी। अन्यथा जिन रचनाओं ने उन्हें उनकी इतनी सुन्दर विद्वत्तापूर्ण टीकाएँ लिखने के लिए प्रेरित किया, उन रचनाओं के कर्ता का नामोल्लेख तक न करना संभव प्रतीत नहीं होता।
कन्दकन्द ने अपने ग्रन्थों में जिस अध्यात्म का प्रतिपादन किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता। अत: अमतचन्द्र ने उसे कुन्दकन्द के ग्रन्थों में ही पाया होगा। उसे पाकर वह इतने प्रभावित हुए कि उस पर उन्होंने ऐसे टीका-ग्रन्थ लिखे, मानो वे 'उस विषय के
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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