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अमृतचन्द्र और और काष्ठा संघ
'प्रशस्ति' शीर्षक से एक प्रशस्ति मुद्रित है । यह
रायचन्द्र शास्त्रमाला, बम्बई से प्रकाशित 'प्रवचनसार' के अन्त में प्रशस्ति अमृतचन्द्र की टीका के पश्चात् है। इसमें वि० सं० १४६९ तथा गोपाद्रि ( ग्वालियर) के देवालय के उल्लेखपूर्वक काष्ठा संघ माथुरान्वय के मुनियों की परम्परा का वर्णन है। इस प्रशस्ति के पश्चात् जयसेनाचार्य की प्रशस्ति है, जो प्रवचनसार के दूसरे टीकाकार हैं । उस प्रशस्ति का शीर्षक है: टीकाकारस्य प्रशस्तिः । अर्थात् यह प्रशस्ति टीकाकार जयसेन की है। इस में उन्हें मूल संघ का लिखा है । किन्तु उक्त लेखक- प्रशस्ति के इसी आधार पर अमृतचन्द्र को काष्ठा संघ का नहीं माना जा सकता । वह तो प्रवचनसार की प्रति लिखाने वाले की प्रशस्ति है। वह काष्ठा संधी थे। किन्तु इस बादरायण सम्बन्ध से अमृतचन्द्र काष्ठासंघी नहीं कहे जा सकते।
श्री नाथूराम जी प्रेमी ने 'अमृतचन्द्र' शीर्षक अपने लेख में लिखा है कि मेघविजय गणि ने अपने 'युक्तिप्रबोध' ग्रन्थ में अमृतचन्द्र के नाम से कई पद्य उद्धृत किये हैं उनमें दो प्राकृत के हैं ।
९. यदुवाच अमृतचन्द्रः
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सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
सव्वे भावो जम्हा पच्चक्खाई परेति णादूण । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेयव्वं ॥ श्रावकाचारे अमृतचन्द्रश्याह
संघो कोविन तार पट्टो मूलो नहेब गिपिच्छो
अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा दु झायव्वो ॥
इनमें से प्रथम गाथा तो समयसार की ३४ वीं गाथा है । और दूसरी गाथा ढाढसी गाथा नामक ग्रन्थ की है। यह ढाढसी गाथा माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित तत्त्वानुशासनादि - संग्रह में मुद्रित है। इसमें ३८ गाथाएँ हैं। ऊपर छपा है— 'अज्ञातनाम काष्ठासंघ मुक्ताचार्यकृता ।'
अर्थात् यह किसी काष्ठासंघी आचार्य की कृति है। इसकी एक गाथा को मेघविजय गणि अमृतचन्द्र के नाम से उद्धृत करते हैं । अत: जैसे लेखक प्रशस्ति के आधार पर अमृतचन्द्र को काष्ठा-संघ का नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार मेघविजय गणि के उल्लेख के आधार पर भी उन्हें काष्ठा संघ का नहीं माना जा सकता ।
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दर्शनसार के रचयिता देवसेनाचार्य ने काष्ठासंघी माथुर संघ को जैनाभासों में गिनाया है। उन्होंने काष्ठासंघ की मान्यताएँ इस प्रकार बतलाई हैं
इत्थीण पुण दिवखा खुल्लयलोयस्स वीरचरियतं ।
कक्कस केसग्गहणं छट्टु घ अणुव्वदं णाम ॥
अर्थात् वे स्त्रियों को दीक्षा देते थे । क्षुल्लकों की वीरचर्या मानते थे, आदि ।
यहां यह बतला देना उचित होगा कि इस संघ में अनेक आचार्य और ग्रन्थकार हुए हैं किन्तु स्त्री-दीक्षा आदि की चर्चा किसी में नहीं है । स्व० प्रेमीजी ने 'अमितगति' शीर्षक लेख में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है ।
यहाँ इसकी चर्चा करने का मुख्य कारण यह है कि अमृतचन्द्र जी और जयसेन जी की टीका के आधारभूत ग्रन्थों की गाथाओं की संख्या में अन्तर है। अमृतचन्द्र जी ने अनेक गाथाओं को, जिन पर जयसेन जी ने टीका रची है, मान्य नहीं किया है। यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कुन्दकुन्दत्रयी के प्रथम टीकाकार अमृतचन्द्र हैं, उनसे लगभग दो-ढाई सौ वर्ष पश्चात् जयसेन
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