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________________ वैष्णवों तथा शैवों ने अपने धर्मों में अभ्य विचारधाराओं के कल्याणकारी तत्त्वों को अंतभुक्त कर उदारता का परिचय दिया। मध्य काल में उत्तर तथा दक्षिण भारत में वैष्णव तथा शव बर्मों का प्रचार बहुत बढ़ा। जैन धर्मावलम्बियों ने उनके उदार दृष्टिकोण के संवर्धन में योग दिया। जैनाचार्यों ने अपने धर्म के अनेक कल्याणप्रद तत्त्वों को उन धर्मों में समन्वित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न किया। यहाँ यह बात विचारणीय है कि भारतीय इतिहास के मध्यकाल में अनेक बड़े राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन हुए। अब वैदिक पौराणिक धर्म ने एक नया रूप ग्रहण किया। पश-बलि वाले यज्ञ तथा तत्संबंधी जटिल क्रियाकलाप प्रायः समाप्त कर दिये गये। नये स्मार्त धर्म ने देश-काल के अनुरूप धर्म-दर्शन के नये आयाम स्थापित किये। जैन धर्म के अहिंसा तथा समताभाव ने इन आयामों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। वर्णाश्रम, संस्कार, प्रशासन, अर्थनीति आदि की तत्कालीन व्यवस्था का जैन धर्म ने विरोध नहीं किया, अन्यथा अनेक सामाजिक जटिलताएँ उपस्थित होतीं। जैन शासकों, व्यापारियों तथा अन्य जैन धर्मावलंबियों ने उन सभी कल्याणकारी परिवर्तनों की प्रेरणा दी तथा उनका निर्माण परा कराया जो राष्ट्रीय भावना के विकास में सहायक थे । भारत की व्यापक सार्वजनीन संस्कृति के निर्माण में जैन धर्म का निस्संदेह असाधारण योगदान है। "प्रावश्यक से अधिक संग्रह चोरी है" जैन-संस्कृति का आदेश है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित साधनों का आश्रय लेकर ही प्रयत्न करना चाहिए । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह, जैन-संस्कृति में चोरी माना गया है। व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह-वृत्ति के कारण दूसरों के जीवन के सुख-साधनों की उपेक्षा कर कोई भी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रह-वृत्ति में ही ढूंढ़े जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें तो अहिंसा और अपरिग्रह दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं । जैन संस्कृति का सन्देश है कि कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रहकर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता । समाज में घुल-मिल कर ही वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है और दूसरे आसपास के सभी साथियों का भी उत्थान कर सकता है। जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह भी आवश्यक है कि वह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए, विराट् बनाए और जिन लोगों से खुद को काम लेना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे। जब तक मनुष्य अपने पार्ववर्ती समाज में अपनत्व की भावना पैदा नहीं करेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता । एक-दूसरे का आपस में अविश्वास ही तबाही का कारण बना हुआ है । -आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज (पर्युषण पर्व, रविवार, ३ सितम्बर १६५७ को महानगरी दिल्ली में एक जनसभा का मार्गदर्शन करते हुए।) ३८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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