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संस्कृति का स्वरूप : भारतीय संस्कृति और जैन-संस्कृति
प्रो० विजयेन्द्र स्नातक
___ संस्कृति क्या है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, यह निर्णय करना कठिन है । संस्कृति के विधायक तत्त्वों को दृष्टि में रखकर ही इसके स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है किन्तु संस्कृति-निर्माता तत्त्व भी विद्वानों और विचारकों की दृष्टि में समान नहीं हैं । 'नको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्' जैसी बात संस्कृति की परिभाषाओं में भी पायी जाती है। इसलिए संस्कृति की सर्वांगपूर्ण, निर्दोष और सर्वसम्मत परिभाषा देने की बात मैं नहीं कर सकता । मैं सबसे पहले एक प्रश्न उठाना चाहता हूं जो संस्कृति के मूल उद्भव से संबंध रखता है, तदनंतर उसके विधायक तत्त्वों की चर्चा करूंगा।
कुछ विचारक ऐसा मानते हैं कि संस्कृति का मूल, जन्मजात वंश-परम्परा से उत्पन्न सहजात संस्कार में निहित है । उन्हीं जन्मजात संस्कारों का प्रतिफलन व्यक्ति के चरित्र में होता है और वही व्यक्ति की संस्कृति को इस धरोहर से निर्मित करता है। दूसरे विद्वान् इस विचार का जोरदार खंडन करते हैं। उनकी मान्यता है कि संस्कृति शब्द में ही उसके अजित करने की प्रक्रिया निहित है। जो संस्कार अर्थात् निरन्तर अभ्यास द्वारा विकसित की जाए वह संस्कृति है। इसके लिए शिक्षा, नैतिकता, आचरण की पवित्रता, साहित्य, विज्ञान आदि का उपार्जित ज्ञान तथा समाज में व्यवहार की विधि आदि की अपेक्षा रहती है। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः ज्ञानवान्, विवेकी, शिक्षित, अनुभवी या पंडित नहीं होता। आभिजात्य या कुलीनता तो उसे जन्म से प्राप्त हो जाती है किन्तु संस्कृति उसे संसार में रहकर संस्कार द्वारा अर्जित करनी होती है। अतः जन्म या वंश-परम्परा के साथ संस्कृति का अविच्छिन्न संबंध नहीं माना जा सकता।
तीसरी कोटि के कुछ ऐसे भी विचारक हैं जो वंश-परम्परा या जन्म के मध्य समन्वय करके यह मानते हैं कि संस्कृति प्रतिभाजन्य ईश्वरीय वरदान है। यह वरदान जाति, वर्ण, धर्म आदि की अपेक्षा नहीं करता । अकू लीन, निर्धन या दलित वर्ग में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी ईश्वरीय देन से प्रतिभाशाली और सुसंस्कृत होता देखा गया है, अत: इसे ईश्वरीय देन ही माना जाना चाहिए । वस्तुतः प्रतिभाजन्य संस्कृति में विश्वास रखने वाले यह भूल जाते हैं कि ज्ञान-विज्ञान, कला और साहित्य में अद्भुत क्षमता रखने वाले प्रतिभाशाली सभी व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं होते । कतिपय विलक्षण विद्वान् और प्रतिभाशाली व्यक्तियों का चरित्र इतना संस्कृतिविहीन और अशिष्ट पाया जाता है कि हम उन्हें किसी प्रकार संस्कृत व्यक्ति नहीं कह सकते। संस्कृति-पूर्णता के लिए धन-वैभव, ऐश्वर्यसंपत्ति, प्रतिभा-क्षमता, विद्या-कला, ज्ञान-विज्ञान आदि से संपन्न होना मात्र पर्याप्त नहीं है। आचरण और व्यवहार की पवित्रता, मानवीय संवेदना, सहिष्णुता, परदुःखकातरता, अपरिग्रह, अहिंसा और क्षमाशीलता आदि गुणों की भी नितान्त आवश्यकता है। एफजे० ब्राउन ने अपनी पुस्तक 'एजुकेशनल सोशियालोजी' में संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "संस्कृति मानव के संपूर्ण व्यवहार का ढांचा है जो अंशतः भौतिक परिवेश से प्रभावित होता है। यह परिवेश प्राकृतिक एवं मानव-निमित दोनों प्रकार का हो सकता है। किन्तु प्रमुख रूप से यह ढांचा सुनिश्चित विचारधाराओं, प्रवृत्तियों, मूल्यों तथा आदतों द्वारा प्रभावित होता है, जिसका विकास समह द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जा सकता है।" इसी आधार पर 'प्रिमिटिव कल्चर' के लेखक एडवर्ड टायलर ने संस्कृति को ज्ञान, विश्वास, कला, साहित्य, रीति-रिवाज का अजित ज्ञान ठहराया है और कहा है कि मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते इन सबके सम्मिश्रण से संस्कृति को प्राप्त करता है। वास्तव में संस्कृति का विस्तार इतना व्यापक है कि उसे हम न तो जन्मजात कह सकते हैं, न उसे ईश्वरीय देन ठहरा सकते हैं और न विद्वत्ता या प्रतिभा के आधार पर उसकी अनिवार्यता सिद्ध कर सकते हैं।
वस्तुतः संस्कृति शब्द किसी ठोस यथार्थ (सत्) का वाचक नहीं है, बल्कि केवल एक अमुर्त कल्पना है। इसलिए विद्वानों के विचार भी अस्पष्ट और विविध हैं। एक विद्वान् के मत में, "संस्कृति के स्वरूप की जिज्ञासा वास्तव में अर्थ तथा मूल्य के स्वरूप की
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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