SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिज्ञासा है । संस्कृति हमारी जीवनविधा तथा विचार- विधा में, प्रतिदिन के परस्पर आदान-प्रदान में, कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान तथा मनोरंजन की विशिष्ट विधाओं में व्यक्त हमारी प्रकृति ही है।" एक विद्वान् ऐसे भी हैं जो जीवन-दृष्टि को ही संस्कृति मानते हैं। संस्कृति के संबंध में एक विषय पर सभी विद्वानों में मतैक्य है । सभी विचारक यह मानते हैं कि मानवेतर प्राणियों में संस्कृति नहीं होती । संस्कृति मानव की अपनी विशिष्टता है। मानव के पास अपनी संस्कृति को अभिव्यक्त करने के साधन हैं। कला, विज्ञान, दर्शन, साहित्य आदि इसी कोटि में आते हैं जो मानवेतर प्राणियों के पास नहीं होते । संस्कृति समाज के संरक्षण और मानव विकास की सरणि है । यदि स्वस्थ और सभ्य समाज की हम अपेक्षा करें तो हमें संस्कृति के संपोषण का प्रयत्न करना होगा। संस्कृति के इस संपोषण में सैकड़ों वर्ष लगते हैं और शनैः शनैः विविध संस्कारों और रीति-रिवाजों से छनकर संस्कृति रूप धारण करती है। किसी लेखक की मान्यता है कि "सैकड़ों वर्षों में थोड़ा-सा इतिहास बनता है, सैकड़ों वर्षों के इतिहास के बाद परम्परा बनती है, यह परंपरा ही किसी जाति या देश की आधार भूमि बनती है। संस्कृति सुदीर्घकालीन अनुभव प्रयोग और विविध परीक्षणों की परिणति होती है। संस्कृति राष्ट्रीय क्वि है- यह ऐसी संपदा है जो राष्ट्र को प्रकाश देती है, आत्मविश्वास जाग्रत् करती है। उसे आशावादी और उत्कर्षकामी बनाती है ।" संस्कृति-विवेचन के संदर्भ में सभ्यता और धर्म की चर्चा करना मैं आवश्यक समझता हूं । इन दोनों शब्दों को प्रायः संस्कृति के समानांतर या कभी-कभी प्रमादवश पर्याय के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । विद्वानों ने प्रारंभ से इस भ्रम के निवारण की चेष्टा की है और यह स्पष्ट करना चाहा है कि सभ्यता और संस्कृति के मध्य विभाजक रेखा खींचना कठिन नहीं है । संस्कृति मनुष्य की उन क्रियाओं, व्यापारों और विचारों का नाम है जिन्हें वह साध्य के रूप में देखता है। संस्कृति मानव समाज के विकास की द्योतक है । संस्कृति का संबंध चिंतन, मनन तथा आचरण की उदात्तता से है । आध्यात्मिक स्तर पर विकसित होने पर ही मनुष्य संस्कृति के परिवेश में प्रविष्ट होता है । सभ्यता से तात्पर्य मनुष्य के भौतिक उपकरण, साधन, आविष्कार, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थान तथा उपयोगी कलाओं का अंगीकार है । सभ्यता मनुष्य की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न उपयोगी साधनों तथा दैनंदिन वस्तुओं पर निर्भर करती है । किसी समाज या राष्ट्र की आंतरिक प्रकृति की पहचान उसकी संस्कृति से होती है, सभ्यता उस समाज या राष्ट्र को प्राप्त बाह्य उपकरणों से जानी-पहचानी जाती है। संस्कृति का लक्ष्य मानव जाति के लिए शाश्वत मूल्यों की खोज है तो सभ्यता का ध्येय मानव समाज के लिए भौतिक सुख-सुविधा के साधन जुटाने से है । जर्मन विद्वान् स्पेंगलर ने सभ्यता को संस्कृति की चरम दशा कहा है । यह चरम दशा उत्थान की नहीं, उसके पतन की भी होती है । अर्थात् भौतिक उपकरणों एवं सुख-साधनों की अतिशयता ही पतन का कारण बनती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पाश्चात्य देशों की वैज्ञानिक प्रगति तथा उससे उत्पन्न सभ्यता है । 1 संस्कृति और धर्म का पारस्परिक क्या संबंध है और क्या धर्म संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है ? धर्म-विहीन समाज और संस्कृति - विहीन समाज क्या समान हैं ? इस प्रकार के और भी अनेक प्रश्न इस संदर्भ में उठाए जाते रहे हैं । वास्तव में धर्म शब्द संकीर्ण अर्थ में प्रयुक्त न होकर कर्त्तव्य, शुद्धाचरण, संयम, नियम आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है । तब उसमें संस्कृति के अनेक उपादान समाहित रहते हैं किन्तु जब धर्म, मजहब के संकीर्ण दायरे में रूढ़िवादिता और धर्मांधता का वाचक बनता है, तब उसका संस्कृति से सीधा सरोकार नहीं रहता । व्यक्ति और समाज के जीवन को जो धारण कर सके, वही सच्चा धर्म है । समाज की व्यवस्था, नियमित चयाँ तथा व्यक्ति विकास के नियमों का उपदेष्टा ही धर्म है कणाद मुनि के शब्दों में "यतोऽभ्युदयनिश्रेयसः सिद्धिः स धर्म" जिससे अभ्युदय, इस लोक का उत्कर्ष और निःश्रेयस, परलोक का कल्याण होता हो वह धर्म है । संस्कृत व्यक्ति के लिए इसी प्रकार के धर्माचरण की आवश्यकता है। अतः पथ, मत, संप्रदाय, मजहब आदि की संकीर्णताओं से ऊपर उठाकर जो प्राणिमात्र के कल्याण का पथ प्रशस्त करे वह धर्म ही सही धर्म है और धर्म-पथ पर संस्कृति के मार्ग से चला जा सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि धर्म और संस्कृति का । इन दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध होने पर भी मौलिक अंतर है । कुछ ऐसे नाम पर दंभ और पाखंड का प्रपंच फैलाकर समाज को भ्रमित करते हैं, भी नाता-रिश्ता नहीं माना जा सकता है। घनिष्ठ संबंध होने पर भी संस्कृति शब्द धर्म का पर्याय नहीं है रूढ़िवादी धार्मिक व्यक्ति समाज में देखे जाते हैं जो धर्म के वस्तुतः वे धार्मिक नहीं हैं और संस्कृति से तो उनका दूर का धर्म-साधना में व्यक्ति और समाज दोनों का योगदान रहता है। किन्तु व्यक्तिगत साधना या व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर हम संस्कृति का स्वरूप निर्धारित नहीं कर सकते । समष्टिगत या सामाजिक अनुभव को ही संस्कृति की संज्ञा दी जा सकती है । सामाजिक अनुभव हमें तीन रूपों में दिखाई देता है । उसे हम तीन विधाओं में अलग-अलग करके भी रख सकते हैं । पहला रूप शिल्प कौशल, वैज्ञानिक तथा तकनीकी आविष्कार का है जो ज्ञान के भौतिक रूप हैं। दूसरी विधा वे संस्थाएं हैं जो समाज को व्यवस्थित करने के लिए किसी समाज में स्थापित होती हैं जैसे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक संस्थाएं तीसरी विधा दर्शन और कला की है जिसमें साहित्य, संगीत, चित्रकला आदि का समावेश है । यह सर्जनात्मक होने के साथ सूक्ष्मतर भी है । अब देखना यह है कि क्या तीनों विधाओं का प्रत्येक समाज में विकास होना जरूरी है, ताकि वे संस्कृत और सभ्य समझे जा सकें ? इसका उत्तर स्पष्ट है । ऐसा आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy