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________________ यवन की बलवती इच्छा को देखकर महाराजश्री ने अन्य दिगम्बराचार्यों से परामर्श करके उस मोटरगाड़ी को संघ के लिये स्वीकार कर लिया। गाड़ी की रजिस्ट्री कराई गई और मियाँ जी को रजिस्ट्री व्यय के रूप में जैन समाज की ओर से १२००.०० रु० दिये गये । किन्तु भक्ति रस से प्लावित यदन भी कुछ कम नहीं था। उसने १२००) रु० का सदुपयोग करने के लिये एक वर्ष तक का अपना ही निःशुल्क ड्राइवर देने का प्रस्ताव रख दिया। उसकी भक्ति भावना से सभी भावविह्वल हो गए। दस्युओं द्वारा चरण-स्पर्श महाराजश्री का संघ श्रवणबेलगोल से दिल्ली की ओर आ रहा था। मार्ग में डाकू-बहुल क्षेत्र पड़ता था। अत: इन्दौर से संघ की सुरक्षा के लिये शासन की ओर से पुलिस की विशेष व्यवस्था की गई। संघ जब गुना के पास पहुंचा तब गुना से शिवपुरी जाते समय सामान्य नागरिक के रूप में डाकुओं का गिरोह भी संघ के साथ लग गया। महाराजश्री की दैनिक दिनचर्या, निःस्पह भाव एवं कठोर साधना को देखकर दस्युओं का वह गिरोह उनका भक्त बन गया। उन्होंने अपने को जैन बताना आरम्भ कर दिया। एक दस्यु महाराजश्री का कमण्डलु लेकर श्रावक के रूप में आगे-आगे चलता था। संघ ग्वालियर के पनिहार नामक जैन तीर्थ के निकट पहंच गया। एक दस्यू ने श्रावक रूप में महाराजश्री को पनिहार दर्शन की प्रेरणा दी। प्रायः श्रावकगण डाकुओं के भय से वहाँ नहीं जाया करते थे। किन्तु महाराजश्री ने पनिहार के जंगल में स्थित तीर्थकर प्रतिमाओं के दर्शन का निर्णय कर लिया। डाकुओं को महाराज के निर्णय पर प्रसन्नता हुई और वे उन्हें छोटे मार्ग से दर्शन कराने ले गये । मार्ग में बड़े-बड़े काँटों का जाल बिछा था। चम्बल के उन शेरों ने महाराजश्री को श्रद्धा से कन्धे पर बिठाकर बात ही बात में काँटों का बाड़ा पार कर लिया। महाराजश्री ने तीर्थंकरों की खडगासन एवं पद्मासन मूर्तियों के दर्शन भाव-विभोर होकर किये। वहाँ के जैन-वैभव विशेषतया उत्तुंग खड़गासन तीर्थकर मूर्ति को देखकर बेचकित हो गये । महाराज की प्रेरणा से मूर्तियों का अभिषेक हुआ। ग्वालियर के निकट आने पर श्रावक के वेश में चलने वाले वे डाक महाराज के चरणों में श्रद्धावनत होकर स्वयं ही चले गये। आचार्यश्री ने विदाई के क्षणों में उन्हें धर्मोपदेश से अनगडीत किया और उनके मंगल-जीवन के लिये उन्हें कुछ नियम दिलाये। दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा विश्व वाङ्गमय की आद्य रचना ऋग्वेद में 'वात रशना' के रूप में दिगम्बर मुनियों के प्रति अप्रतिम आस्थाभाव प्रकट किया गया है। कालप्रवाह से दिगम्बर मुनियों की गौरवशाली ऐतिहासिक परम्परा विरल होती चली गई। भारतीय समाज में दिगम्बर मनियों के निर्बाध विचरण पर टीका-टिप्पणियां की जाने लगीं। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती धर्मसम्राट श्री शान्तिसागर जी महाराज ने मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा १९२७ को दक्षिण भारत से चतुर्विध संघ सहित श्री सम्मेदशिखर जी एवं उत्तर भारत के तीर्थक्षेत्रों की वन्दना के निमित्त प्रस्थान किया। उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि सदियों के काले अन्धेरे में से प्रकाश की एक किरण प्रस्फुटित हो गई है। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के विचरण के समय भारतीय शासन व्यवस्था ब्रिटिश सरकार एवं देशी राजे-रजवाडों द्वारा शासित थी। हमारे महान् देश की परम्पराओं से अनभिज्ञ विदेशियों के लिए आचार्यश्री का स्वच्छन्द विचरण विस्मय का विषय था । परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी एवं आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के गरिमामय अवदान से लुप्तप्राय: दिगम्बर साधुओं की परम्परा को वर्तमान युग में सामाजिक एवं धार्मिक स्वीकृति मिल पाई है। इन दोनों उपसर्ग विजेताओं ने अपनी अट निष्ठा एवं निस्पृह साधना से अनेक व्यवधानों के उपरान्त भी दिगम्बर साधुओं के विचरण को सर्वसुलभ बना दिया है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने तो अपने निर्बाध विचरण से भारतीय संसद् के कक्ष को भी महिमामंडित किया है। मुनि श्री देशभूषण जी ने दिगम्बर मुनियों के निर्बाध विचरण को सर्वसुलभ बनाने के लिए अनथक पदयात्रायें की हैं। आपने धर्मदेशना के लिए उन स्थानों का विशेष चयन किया जहां विगत पाँच-छ: शताब्दियों से दिगम्बर मुनियों का विचरण नहीं हुआ था। इस महान् संकल्प की पूर्ति के लिए आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी को अनेक उपसों एवं बाधाओं का सामना भी करना पड़ा। किन्तु उनके सात्त्विक संकल्प के सामने शासन एवं उपद्रवकर्ताओं को सदैव झुकना पड़ा। रामपुर (हैदराबाद) के विमियों द्वारा बाधा __श्रवणबेलगोल (बंगलौर) एवं मद्रास प्रान्त में धर्मप्रभावना करते हुए आचार्यश्री निजाम स्टेट (हैदराबाद) के रामपुर जिले में पधारे । इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में जैन समाज के केवल आठ परिवार थे। अत: इस क्षेत्र में दिगम्बर जैन मुनि का प्रवेश करना कठिन कार्य था। श्रावकों ने समस्या का समाधान करने के लिए बुद्धिमत्तापूर्वक उन्हें नगर के बाहर सेठ हरधरन्नपा के बंगले पर ठहरा दिया। कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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