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________________ जैन मुनियों को प्रायः अपनी पदयात्रा के मार्ग में आने वाले मन्दिरों के दर्शन का विशेष आकर्षण रहता है। अतः महाराजश्री ने श्रावकों से प्रश्न किया कि यहां पर दिगम्बर जैन मन्दिर हैं ? श्रावकों ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि श्री मन्दिर जी किले के अन्दर है। वहां आपका दिगम्बर वेश में जाना असम्भव है। मुनिश्री ने स्थिति की गम्भीरता को समझकर भी दिगम्बर मुनि के विचरण को सर्वत्र सुलभ बनाने की भावना से कठोर संकल्प करते हुए कहा कि हम जिनालय के दर्शन करने निश्चित रूप से जायेंगे। महाराजश्री के इस निर्णय से सभी श्रावक स्तब्ध रह गए। महाराजश्री एक योग्य पंडित और अंग्रेजी भाषा के एक अन्य जानकार भक्त को लेकर स्वयं ही बाजार में होते हुए किले के जैन मन्दिर में पहुच गये। बड़े मनोयोग से दर्शन के उपरान्त मुनिश्री दूसरे मोहल्ले के बाजार से होते हुए सेठ जी के बंगले पर प्रातः नौ बजे तक आ गए। वापिस पहुंच कर महाराजश्री आहार प्रारम्भ कर ही रहे थे कि लगभग ३०० व्यक्तियों की एक धर्मान्ध भीड़ न लाठी, तलवार, भाला इत्यादि लिए हुए सठ जी क घर को घर लिया। सेठ जी ने उत्तेजित भीड़ को विनम्रतापूर्वक समझाया और मुनिश्री ने स्वयं आहार का त्याग करके साहसपूर्वक दिगम्बर मुनि की परम्परा से उपस्थित मुस्लिम समुदाय को अवगत कराया। धीरे-धीरे भीड़ वहां से स्वयं ही हट गइ । किन्तु धमान्ध भाड़ क नताओ न कलक्टर के यहाँ जाकर प्रार्थनापत्र दे दिया कि राज्य की शान्ति के लिए नग्न मुनि के यहां रहन एव विचरण पर प्रतिबन्ध लगाया जाए। सेठ हरधरन्नपा भी कलक्टर के यहां पहुंचे और उन्होंने निवेदन किया कि हमारे सोभाग्य से हमारे धर्मगुरु हमारे नगर म आए ह। वे परम्परा से नग्न रहते हैं और किसी भी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते । अतः मैं उनके आगमन की सूचना देन क निमित्त आपक पास आया हूं। उन्होंने जैन समाज की ओर से यह अनुरोध भी किया कि आप स्वय भी महाराजश्री स भेंट करने की कृपा करें। सठ जी अपनी परोपकारिता एवं धर्मप्रवृत्ति के कारण नगर में विख्यात थे। अतः उनके विनम्र निवेदन का कलक्टर महोदय क मन पर विशेष प्रभाव पड़ा। उन्होंने धर्मान्ध व्यक्तियों द्वारा दिए गए आवेदन को रद्द कर दिया और स्वयं महाराज के दशन को गए। महाराजश्री के मुख से सर्वधर्म सद्भाव के उदार एव उदात्त विचारों का श्रवण कर वह गद्गद हो गए। उन्होने मुनिश्री स निवेदन किया कि हमारे योग्य कोई सेवा बतलाइए। महाराजश्री ने कहा कि दिगम्बर मुनि किसी भी व्यक्ति की कोई सेवा स्वय के लिए नहीं लेते। उसी समय सेठ हरधरन्नपा ने कलक्टर साहब से निवेदन किया कि हम अपने धर्मगुरु को एक बार पुनः श्री मन्दिर जी के दर्शन कराना चाहते है। कलक्टर महोदय ने शहर होकर मन्दिर में जाने की आज्ञा दे दी। मार्ग में उत्पात एवं अन्य अशोभन दृश्य उपस्थित न हो. इस कारण उन्होंने पुलिस का विशेष प्रबन्ध भी कर दिया। महाराजश्री श्रावक समुदाय के साथ विशेष रूप से मन्दिर जी के दर्शन करने गए। उसी दिन दोपहर में उनका मार्मिक प्रवचन हुआ और तत्पश्चात् केश लोंच। आचार्यश्री के केश लोंच का दृश्य देखकर कलक्टर महोदय एवं विद्वेषी तत्त्वों पर विशेष प्रभाव पड़ा। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह उठी । इस अश्रुधारा में मन की सभी ग्रन्थियाँ स्वयं समाप्त हो गई। गुलवर्गा का उपद्रव रामपुर (हैदराबाद) से विहार करते हुए मुनिश्री गुलवर्गा नगर में पधारे। चार-पांच दिन श्री मन्दिर जी में आपका धर्म प्रवचन हुआ। अचानक ही शहर के वातावरण में किन्हीं तत्त्वों ने जहर घोल दिया। नगर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो गया। दंगों के 'परिणामस्वरूप कुछ उत्तेजित मुसलमान आहार के लिए जाते हुए मुनिश्री की चर्या में विघ्न उपस्थित करने लगे। आचार्यश्री ने अपने सरल साधु स्वभाव के कारण उत्तेजित बन्धुओं की दुर्भावना को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया। एक दिन आचार्यश्री सेठ चन्द्रकुमार जी के यहां भवन की तीसरी मंजिल पर आहार ले रहे थे। उसी समय लगभग तीन हजार व्यक्तियों की भीड़ ने उस भव्य कोठी को घर लिया। उनका इरादा मुनिश्री का कत्ल करने का था। आहार के पश्चात् मुनिश्री कोठी से निकलकर श्री मन्दिर जी के लिए चलने ही वाले थे कि एकाएक सेठ चन्द्रकुमार जी ने आकर महाराजश्री से निवेदन किया कि आप सामायिक का कार्यक्रम यहीं सम्पन्न कर लें। उन्होंने मुनिश्री को स्थिति की वास्तविकता से भी परिचित करा दिया। सेठ जी के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए मुनिश्री ने कहा कि हम सामायिक श्री मन्दिर जी में ही करेंगे। उन्होंने दार्शनिक भाषा में श्री सेठ जी से कहा कि जन्म और मृत्यु का चक्र तो इस जीव के साथ अनादि काल से चला आ रहा है। अतः मृत्यु से क्या भयभीत होना ? आचार्यश्री की धर्ममय प्रेरक वाणी का श्रवण कर सेठ जी एवं परिवार के अन्य सदस्य स्तब्ध रह गए। इसी समय नगर की जनता को पता चल गया कि महाराजश्री के प्राण संकट में हैं। वे भी हजारों की संख्या में एकत्र होकर महाराजश्री की रक्षा के लिए वीर सैनिकों के रूप में निकल पड़े। उत्साही धर्मरक्षकों की सेना को देखते ही उत्तेजित भीड़ भयभीत होकर भाग गई और आचार्यश्री ने कुशलतापूर्वक श्री मन्दिर जी के लिए प्रस्थान किया। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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