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________________ व्यापार के लिए विशेष सुविधाएँ देते थे । अतः प्राचीन भारत में राष्ट्रकूट नरेशों के संरक्षण में पल्लवित जैन धर्मानुयायियों का बड़ी संख्या में अरब और उसके निकटवर्ती देशों में होना कोई असम्भव बात नहीं है । इतिहास साक्षी है कि जैन कला के महान् उन्नायक मन्त्रीद्वय वस्तुपाल एवं तेजपाल का जैन मन्दिरों के साथ-साथ हिन्दू एवं मुसलमान तीर्थ स्थलों से भी रागभाव रहा है। इसीलिए उन्होंने एक कलापूर्ण आरसी-पत्थर का तोरणद्वार बनवाकर भेंट स्वरूप मक्का भेजा था। जैन धर्मानुयायी प्राचीनकाल से ही स्थापत्य कला में अग्रणी रहे हैं । सहिष्णुता के पोषक जैन धर्मानुयायियों ने देश-विदेश की कला शैलियों से सामंजस्य बनाए रखा। डॉ० हेमरिक जिम्मर ने भगवान् पार्श्वनाथ की सर्पफनयुक्त प्रतिमा और मैसोपोटामिया की प्राचीन कला के स्वरूपों में सादृश्यता को देखते हुए दोनों कलाओं के मध्य सम्पर्क सूत्रों की उद्भावना की है।' जैन कला प्रतीक कितने प्रभावशाली रहे हैं और उनका देश-विदेश में किस प्रकार से अनुकरण हुआ है, जैन सर्वतोभद्रिका इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। प्रो० सरसी कुमार सरस्वती ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख 'पूर्व भारत' में जैन सर्वतोभद्रिका का विशद विवेचन एवं तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि जैन कला के इस विशिष्ट प्रतिमा प्रतीक का सम्बन्ध एक दुर्लभ प्रकार के मन्दिरों के विकास के साथ देखा जा सकता है। ये दुर्लभ मन्दिर दक्षिण पूर्व एशिया में भी पाये जाते हैं। उनके अनुसार बर्मा के बौद्ध मन्दिरों में जैन सर्वतोभद्रिका को ही नहीं वरन् सर्वतोभद्र की अभिकल्पना को भी सुस्पष्ट और सुनिश्चित विधि से अपनाया गया है । " भगवान् महावीर स्वामी के पच्चीस सौवें परिनिर्वाण महोत्सव के सन्दर्भ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'जैन कला एवं स्थापत्य', द्वितीय खंड की सम्पादकीय टिप्पणी में भारतीय पुरातत्त्व के महान् अध्येता श्री अमलानंद घोष ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी एवं डॉo ० क्लाज़ फिशर द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर उत्तर-पूर्व बल्गारिया एवं करेज एमीर (अफगानिस्तान) से प्राप्त तीर्थंकर मूर्ति के सम्बन्ध में जानकारी दी है । विद्वान् सम्पादक ने डॉ० क्लाज़ फिशर की टिप्पणी को प्रस्तुत करते हुए अफ़गानिस्तान के बामेयान नामक स्थान पर एक संगमरमर की तीर्थकर मूर्ति और पूर्वी तुर्किस्तान के तुफ़ॉन ओसिस की गुफाओं में एक जैन मुनि के चित्रांकन की रोचक जानकारी दी है। इसी प्रकार की एक महत्त्वपूर्ण जानकारी महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मेरी जीवन यात्रा (भाग - २) में दी है । सन् १९३४ की तिब्बत यात्रा का विवरण लेखक ने इस प्रकार दिया है - "फिर चिदोड़ प्रसाद गए। इसमें एक कमरा ग्यगर् लहखड् ( भारतीय मन्दिर) है। वहां सात-आठ पातियों में बहुतसी पीतल की मूर्तियां रखी हुई है, जिसमें बहुत-सी भारतीय हैं, कुछ तो बहुत ही सुन्दर और कुछ सातवीं-आठवीं सदी की हो सकती हैं। सम्यत् ११६१ (११३५ ई०) की एक जैन मूर्ति भी देखी।" महाकवि बाग की 'सर्वद्वीपान्तरसंचारी पादलेप' की परिकल्पना भ्रमणशील धावकों में चरितार्थ होती है । स्वाभाविक है कि उद्यमी धावक व्यापार के निमित्त देशाटन करते हुए अपनी पूजा-अर्चा के लिए तीर्थंकर मूर्तियां साथ ले गए होंगे । सम्भव है, आने वाले समय में विद्वत् वर्ग अपने सतत परिश्रम एवं निष्ठापूर्ण शोध से इस दिशा में नई जानकारियां प्रस्तुत करेंगे। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जैन धर्म में चतुविध संघ -मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका का विधान किया गया है। समाज के सर्वांगीण विकास में सभी का सम्मिलित योग होता है। आत्म-साधक मुनि की दैनिकचर्या में धावक-धाविकाओं का सहयोग रहता है। इसी भांति समाज के कल्याण के निमित्त मुनि भी प्रयत्नशील रहते हैं और अपवाद स्वरूप भक्तों को अनुगृहीत करते हैं। महापुराण अध्याय ६५ / ६८ में एक ऐसे मुनिराज का उल्लेख है जिन्होंने रेणुका के सम्यक्त्व व व्रत ग्रहण से सन्तुष्ट होकर मनवांछित पदार्थ देने वाली कामधेनु नाम की विद्या और मन्त्र सहित एक फरसा भी उसे प्रदान किया था । जैन मुनिचर्या में रात्रि के समय मौन का विधान किया गया है। किन्तु करुणाशील जैन मुनि किसी व्यक्ति के अधःपतन को देखकर दुःखी हो जाते हैं । विसंगतियों के शिकार मनुष्यों के उद्धार के लिए यदा-कदा वह अपनी प्रचलित परिपाटी का अनायास उल्लंघन भी कर जाते थे । पद्मपुराण अध्याय ४८ / ३८ में कामपीड़ा से व्यथित यक्षदत्तक को रात्रि के समय दरिद्रों की बस्ती में एक सुन्दरी के घर में जाता हुआ देखकर अवधिज्ञान से युक्त मुनि के मुखारविन्द से 'मा' अर्थात् निषेध है, शब्द सहसा निकल गया था। जैन धर्मानुयायियों ने परम्परा से अपने पवित्र आचरण एवं व्यवहार से भारतीय समाज में विशिष्ट गौरव अर्जित किया है। श्रावकरत्न वस्तुपाल से जब राजा वीरधवल ने राज्य का मन्त्रीपद संभालने के लिए कहा, उस अवसर पर वस्तुपाल का उत्तर जैन समाज की चारित्रिक गरिमा का प्रतीक बन गया है न्यायं यदि स्पृशसि लोभमपाकरोषि कर्णेजपानपधिनोषि शमं तनोषि । सुस्वाभिमानस्तव घृतः शिरसा निदेश स्तन्यूनमेष भयकाडा परवास्तु भद्रम || बालचन्द्रसूरि (बसन्त विलास सर्व २ पद ८० ) ९. वही, तालिका १९२० २. प्रो० सरसी कुमार सरस्वती, जैन कला एवं स्थापत्य - खंड २, पृ० २६८ (ii) Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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