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________________ श्री रंगाचारी वनजा के अनुसार दक्षिण भारतीय मुद्राओं पर जैन प्रभाव का प्रमाण आरम्भिक पाण्ड्य शासकों की चतुष्कोण सांचे में ढली या ठप्पे की सहायता से बनायी गई उन कास्य-मुद्राओं से मिलने लगता है जो उन्होंने तीसरी ओर चौथी शताब्दी के मध्य प्रसारित की थीं। पाण्ड्य शासकों का प्रारम्भिक धर्म जैन धर्म था। अत: पाण्ड्य शासकों की मुद्राओं पर अष्ट मंगल द्रव्य-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्य युगल का होना अस्वाभाविक नहीं है। होयसल नरेश विट्ठी विष्णुवर्धन ने १११६ ई० में चोल राज्यपाल से तलकाड जीतने के उपरान्त स्वर्ण मुद्राएं प्रसारित की थीं। अब तक यह माना जाता रहा है कि मुद्रा के अग्रभाग पर अंकित आकृति चामुण्डा की है। श्री वनजा के अनुसार मुद्राओं पर अंकित केसरी सिंह और सिंहासीन यक्ष अम्बिका का आरम्भ में ग़लत अर्थ न लिया गया था। किन्तु सूक्ष्म परीक्षण के पश्चात् सिद्ध हुआ है कि यह आकृति और उसके आयुध अम्बिका के हैं । जैनाचार्य अपनी उदार दृष्टि के लिए विख्यात रहे हैं। देश के प्रत्येक अंचल की पदयात्रा करके उन्होंने लोक जीवन के विविध पक्षों को अपने चक्षुओं से देखा है और अपने धर्म को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप बनाने के लिए उन्होंने लोक संस्कृति के अनेक तत्त्वों का जैन धर्म में समावेश कर लिया है। श्री वाचस्पति गैरोला के अनुसार "तीर्थकरों के दोनों पाश्वों में यक्ष-यक्षिणियों के युगल चित्र वस्तुतः जैन तीर्थंकरों और कलाकारों के लोक-जीवन के प्रति अनुराग के प्रतीक हैं। जैन साहित्य के निर्माताओं ने जिस प्रकार लोक भाषाओं को अपनाकर लोक-जीवन के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त किया उसी प्रकार जैन कलाकारों ने अपनी कला-कृतियों में लोक-विश्वासों को अभिव्यंजित कर लोक-सामान्य के प्रति अपनी गहन अभिरुचि को प्रकट किया है।" जैन पुराणशास्त्र में चक्रवर्ती सम्राट भरत की दिग्विजय यात्रा में वर्णित देश एवं नगरों की तालिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन संसार के भूगोल की जैनाचार्यों को विशेष जानकारी थी। जैन तीर्थंकर अपने विशिष्ट प्रभाव के कारण देश-विदेश में संपूजित थे। कर्नल टाड के अनुसार प्राचीन काल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुए हैं । इनमें पहले आदिनाथ ऋषभदेव थे। दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ ही स्केण्डिनेविया निवासियों के प्रथम ओडिन तथा चीनियों के प्रथम फ़ो नामक देवता थे। प्राचीन काल में जैन धर्म के मिशन का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ था । बौद्ध धर्म के प्रचलन से पूर्व ही जैन धर्म के सिद्धान्तों ने मध्य एशिया को प्रभावित किया था। महान् अनुसन्धाता प्रो० बील की मान्यता है कि गौतम बुद्ध द्वारा धर्मप्रवर्तन से बहुत पूर्व मध्य एशिया में उससे मिलता-जुलता धर्म प्रचलित था। सर हेनरी रालिन्सन ने तो मध्य एशिया के बल्खनगर का नव्यविहार तथा ईंटों से बने हुए अन्य प्राचीन स्मारकीय अवशेषों को देखकर उरगवंशी भगवान् पार्श्वनाथ (काश्यप) के वहां जाने के सम्बन्ध में जानकारी दी है। इसी प्रकार श्री डी०जी० महाजन ने सन् १९४५ में हुए भारतीय इतिहास सम्मेलन में प्रस्तुत अपने अन्वेषणात्मक लेख में प्रतिपादित किया कि श्रीलंका के प्राचीन ग्रन्थों 'दीपवंश' और 'महावंश' से यह तथ्य प्रकाशित होता है कि श्रीलंका में जैनमत बौद्धमत से बहुत पहले प्रचलित था। जैन मतानुयायी सम्राट उदयन ने अनुराधापुर नगर की स्थापना की और अनेक जैन मन्दिरों, मठों और स्तूपों का वहां निर्माण कराया। इसी प्रकार पांडुकभय तथा अभय प्रभृति नरेशों ने निग्रंथों की सेवार्थ कई निर्माण कराए और अनेक स्तूपों और जैन मूर्तियों की स्थापना की। श्रीलंका के मूल आदिवासी जिन्हें 'वेद' कहा जाता था वास्तव में जैन मतानुयायी विद्याधर थे। जैन धर्म अपनी उदार दृष्टि एवं जीवन मूल्यों के कारण सनातन काल से मानव मात्र के धर्म के रूप में जाना जाता है। इसके समन्नत दर्शन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने मानव समाज के चिन्तन पक्ष को प्रभावित किया है । प्राचीन युग में इस महान् विचारधारा ने तत्कालीन संसार को किस प्रकार से संस्कारित करने में सहयोग दिया, यह अब शोध का विषय है। समय-समय पर विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित निबन्धों से यह जानकारी अवश्य मिलती है कि भारतवर्ष के इस प्राचीन धर्म का विश्व समाज के उन्नयन में अपूर्व सहयोग रहा है। उदाहरण के लिए श्री सिल्वालेवी ने यह जानकारी दी है कि सुमात्रा आदि प्रदेशों में जैनधर्म का प्रभाव रहा है। पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री के अनुसार जापान में प्रचलित येन मत भी जैन धर्म से प्रभावित है । पंडिताचार्य महोदय ने तो यह सिद्ध किया है कि लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में बहुत से जैनी अरब देश से आकर बसे थे । अरब पर्यटक सुलेमान के अनुसार राष्ट्रकूट नरेशों की अरबी मुसलमानों से गहरी मैत्री थी और वे उन्हें १. दृष्टव्य श्री रंगाचारी बन जा, जैन कला एवं स्थापत्य, खंड-३, .० ४७४-४७५ २. श्री वाचस्पति गैरोला, भारतीय संस्कृति और कला, पृ०६४ ३-४. दृष्टव्य, डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ४४ एवं ४८ ५. जैन बिबलियोग्राफ़ी (छोटेलाल जैन), वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका १३६२ जैन इतिहास, कला और संस्कृति ८ (i) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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