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________________ मन्दिरको प्रारम्भिक भित्ति चित्र संयोजना में जैन प्रभाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है । आकाश में मेघों के बीच नृत्य करती हुई अप्सरा राजा-रानी की आकृतियां सुन्दर एवं सजीव हैं । मन्दिर की छत पर बने हुए चित्रों में कमल सरोवर का प्रस्तुतीकरण अत्यन्त प्रभावशाली है। शिलन्नवास के गुहा मन्दिर की छत, तोरण, स्तम्भ इत्यादि पर हुआ चित्रांकन भारतीय कला के इतिहास की अनुपम निधि है। ऐलोरा का कैलाशनाथ मन्दिर, तिरुमलाई के जैन मन्दिर, श्रवणबेलगोल के जैन मठ के भित्ति चित्र प्राचीन जैन कला वैभव के सूचक हैं । भारतीय संस्कृति और कला के विशेषज्ञ श्री वाचस्पति गैरोला ने जैन चित्रकला के इतिहास, परम्परा और प्रभाव का विस्तार से इस प्रकार विवेचन किया है- "भारतीय चित्रकला के इतिहास में जैन चित्रकला न केवल अपनी समृद्ध थाती के लिए, अपितु प्राचीनता के लिए भी प्रसिद्ध है । भारतीय चित्रकला की समस्त शैलियों में १५वीं शती ई० से पहले के जितने भी चित्र प्राप्त हैं, उनमें मुख्यता तथा प्राचीनता जैन चित्रों की है। प्राचीन महत्त्व के ये जैनचित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बद्ध हैं, जिन्होंने अपने सम्प्रदाय सम्बन्धी ग्रन्थों को चित्रित करवाने में बड़ी रुचि ली। इन आरम्भिक जैनचित्रों को विद्वानों ने पश्चिमी गुजरात तथा अपभ्रंश शैली नाम दिया है।" वस्तुतः ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से १०वीं शती ई० से लेकर १५वीं शती ई० तक की चित्रकला परम्परा को जीवित बनाये रखने में जैन कलाकारों का सर्वाधिक योगदान रहा है। जैन चित्रकला के मुख्यतः तीन माध्यम हैं ताड़पत्र, कपड़ा तथा कागज । कागज की पोथियों पर जैन कलाकारों ने सुन्दर चित्र बनाये हैं। इस प्रकार की अधिकतर पोथियां यद्यपि जैनधर्म से ही सम्बद्ध हैं; तथापि 'मार्कण्डेय पुराण', 'दुर्गा सप्तशती' आदि ग्रन्थों के चित्रण में भी जैन कलाकारों का योगदान रहा। उन्होंने 'रति रहस्य', 'कामसूत्र' आदि ग्रन्थों के आधार पर भी कागज पर फुटकर चित्र निर्मित किये। कागज की जो पोथियां चित्रित की गयी हैं उन्हें ताड़पत्रीय आकार में काटकर उन पर लेखन तथा चित्रण का कार्य किया गया है । इन पोथियों पर मूल्यवान् स्वर्ण तथा रजत रंगों का उपयोग किया गया है । ताड़पत्र और कागज के अतिरिक्त वस्त्र तथा पटों पर भी जैन-कलाकारों ने चित्रण किया। इन कलाकारों को वस्त्रचित्रों की प्रेरणा सम्भवतः बौद्धकला से प्राप्त हुई थी। जैन शैली का एक महत्त्वपूर्ण वस्त्रचित्र वाशिगटन की फीयर आर्ट गॅलरी में सुरक्षित है, जो 'बसन्तविलास (१५०८ वि० में रचित) पर आधारित है और जिसे विश्व चित्रकला के इतिहास में दुर्लभ कलाकृति माना जाता है । शैली एवं संरचना की दृष्टि से जैन चित्रकला का अपना पृथक् महत्त्व है । उसका चक्षु चित्रण उसकी विशिष्टता का द्योतक है, जो प्रत्येक दर्शक को सहज ही आकर्षित कर लेता है। जैन चित्र कला का यह चक्षु-चित्रण वस्तुतः जैन मूर्ति शिल्प का रिक्थ है, जिसे विशेष रूप से जैन प्रतिमाओं में देखा जा सकता है । उसका प्रभाव राजपूत तथा मुगल शैलियों पर भी परिलक्षित हुआ । रंगों और रेखाओं के संयोजन में भी जैन कलाकारों की सजगता प्रशंसनीय है । ताड़पत्रों पर अंकित चित्रों में प्रधानतः पीले रंग का उपयोग है, यद्यपि कहीं-कहीं स्वर्ण रंग को भी संयोजित किया गया है । कागज के चित्रों की पृष्ठभूमि पीले तथा लाल रंग की है और वस्त्रचित्रों पर उनके छोटे-छोटे चिह्न अंकित कर दिये गये हैं । जैन कलाकार राजपूत कलम की ओर लगभग १५वीं शती से ही आकर्षित होने लगे थे। बाद में मुगल चित्रकला में ईरानी शिल्प के बढ़ते हुए प्रभाव से वह भी अछूती न रह सकी । फलतः राजपूत चित्रकला की बढ़ती हुई समृद्धि में जैन चित्रकला की परिणति हो गयी। इस रूप में जैन चित्रकला राजपूत चित्रकला के साथ निरन्तर सम्पर्क स्थापित करती गयो । किन्तु कुछ बातों में दोनों की भिन्नता बनी रही। हिन्दू राजपूत कला जब स्थूल मांसलता की ओर अग्रसर हुई और उसमें राग-रागिनी, नख-शिख, बारहमासा विषयक चित्रों का अम्बार लगने लगा तब भी जैन कला अपनी परम्परागत धार्मिकता में अडिग बनी रही।"" जैन धर्म के प्रारम्भिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में काष्ठ का बहुलता से प्रयोग हुआ है। श्री हृदयवदन राव के अनुसार - "जैन मतावलम्बियों ने प्रारम्भ में जिन धार्मिक स्थानों का निर्माण किया उनके लिए काष्ठ का उपयोग किया गया। कालान्तर में इनके स्थान पर पत्थर के पक्के चैत्यालय बनाए गए। इस तथ्य का उल्लेख उस समय के अनेक शिलालेखों में मिलता है।" जैन काष्ठ शिल्प की प्राचीनता एवं जैन कला के विध्यपूर्ण प्रयोगों को दृष्टिगत कर डॉ० विनोद प्रकाश द्विवेदी ने सत्य ही कहा है- "काष्ठ शिल्प में जैनों ने अपने सहगामी हिंदुओं और बौद्धों का नेतृत्व किया। जैन काष्ठ शिल्पांकनों से उनका निर्माण कराने वाले जैन धनिकों की अभिरुचि का आभास मिलता है जो अपने घर देरासरों या मन्दिरों में उपलब्ध तिल-तिल स्थान का अलंकरण हुआ देखना चाहते थे ।"२ वास्तव में जैन काष्ठ शिल्प श्रावकों के अन्तर्मन की सौन्दर्यानुभूति का भक्तिपरक चित्रण है । 112 5 १. दृष्टव्य, श्री वाचस्पति गैरोला, भारतीय संस्कृति और कला, पृ० २६१-२६३ २. डॉ० विनोद प्रकाश द्विवेदी, जैन कला एवं स्थापत्य - खंड ३, पृ० ४५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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