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________________ पद्मासन स्थित मूर्तियां और अन्य धर्म चिह्न अभी भी देखे जा सकते हैं । मस्जिद के सम्पूर्ण वास्तुशिल्प में राजस्थान के जैन वास्तुशिल्प की गहरी छाप है। देश के विभिन्न भागों में कट्टर मौलवियों की प्रेरणा से अनेक विशालकाय जैन मन्दिरों को मस्जिद का रूप दे दिया गया। पुरातत्त्ववेत्ता श्री मुनीशचन्द्र जोशी के अनुसार- अजमेर स्थित मस्जिद, अढ़ाई दिन का झोंपडा, मूलरूप में जैन मन्दिर था। इस मस्जिद के पास और उसके भीतर जैन मूर्तियाँ पाई गयी थीं। मस्जिद के परिवर्तित रूप में भी उसकी संरचना चतुष्कोण जैन मन्दिरों तथा उनकी अलंकृत छतों से मिलतीजुलती है। स्तम्भों का रूपांकन सबल है और उसमें सुस्पष्ट अलंकरण योजना है। * कुछ उदार मुस्लिम शासकों के राज्यकाल में जैन धर्मानुयायियों ने अपने मन्दिरों का पुनः निर्माण कराया। भारतवर्ष के जैन मन्दिरों में मुस्लिम शासन के विभिन्न कालों की अनेक मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। अनेक मुसलमान शासकों ने भारतीयता के रंग में रंगकर जैन मुनियों का सम्मान किया और जैन विद्वानों को प्रश्रय दिया। महान् मुगल सम्राट् अकबर ने पूर्ववर्ती सुल्तानों द्वारा अपहृत धातु जिनमूर्तियों को जैन समाज को लौटा दिया। गंगाजल का आचमन करने वाले सम्राट् अकबर को भारतीय संस्कृति के सर्वधर्म सद्भाव का प्रतीक पुरुष माना जा सकता है। भारतवर्ष में जैन मन्दिर एवं मूर्तियों की अनवरत परम्परा को दृष्टिगत करते हुए यह कहा जा सकता है कि सौन्दर्य बोध में अग्रणी जैन समाज अपने आराध्य पुरुषों की पूजा, आत्मशान्ति एवं गुरुभक्ति के लिए मन्दिरों का निर्माण कराने में सर्वप्रमुख रहा है। जैन मन्दिर एवं मूर्तिकला के क्रमिक विकास के अध्ययन से यह महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलता है कि उदार एवं धर्मनिरपेक्ष शासकों के राज्यकाल में देश समृद्ध होता है और कलाओं के विकास को बल मिलता है। इसके विपरीत धर्मान्ध एवं कट्टरपंथी शासकों के राज्यकाल में जनता दुःखी रहती है, राज्यकोष को क्षति पहुंचती है और कलाएं मरणोन्मुखी हो जाती हैं। जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों मथुरा, पाटलिपुत्र, पेशावर आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में जैन स्तूप रहे हैं। मथुरा जैन स्तूपों की नगरी के रूप में प्रसिद्ध रहा है। जम्बूस्वामीचरित्र के कर्ता पं० राजमल्ल (मुगल सम्राट अकबर के समकालीन) के अनुसार - उस समय मथुरा में ५१५ जीर्ण स्तूप मौजूद थे और उनका उद्धार टोडर नाम के अगणित द्रव्य व्यय करके कराया था । एक धनिक 'साहु ने जैन स्थापत्य कला के क्षेत्र में गुहा मन्दिरों का विशिष्ट स्थान है। प्रारम्भ में जैन साधु पर्वत की उपत्यकाओं में धर्म साधना करते थे । अतएव भारतवर्ष के पर्वतीय स्थलों में सहस्रों जैन गुहाओं का अस्तित्व मिलता है। स्वापत्य की दृष्टि से बहुविध ऐतिहासिक सामग्री इनसे प्राप्त होती है । धर्मराज सम्राट् अशोक द्वारा बिहार की पहाड़ी बराबर में निर्मित चार गुफाएं और उसके वंशज राजा दशरथ द्वारा निर्मित नागर्जुनी की तीन गुफाएं जैन सन्तों को समर्पित की गई थीं। डॉ० र० चम्पकलक्ष्मी ने भारतीय कला एवं स्थापत्य के अन्तर्गत 'दक्षिण भारत' शीर्षक प्रकाशित लेख में ३०० ई० पू० से ३०० ई० तक की गुफाओं का विस्तार से विवरण दिया है। आनेमले अरिपट्टि मांगुल, भुतुप्पट्ट, तिरुपरंकुरम, लरिच्चयुर, अजगरमल, करुंगालवकुडि, कीजवलवु, तिरुवादवर, विविकरमंगलम, मेट्टूपट्टि (मदुरै जिला ) पिल्लैयर्पति, मरुकल्तलै ( रामनाथपुरम् जिला ) तिरुचिरपल्लि, शिनवासल, नमले तेनिमलं, पुगलूर, अर्धनारीपमम् (तिरुचिरप्पत्ति जिला ), अरवलूर (कोयम्बतूर जिला ) ममन्दुर, सेदुरम्मत्तु, तिरुराधरकुण्ड, सोलवन्दिपुरम् ( उत्तर अकार्ट ), व्यान्निकपुरम (चित्तूर जिला) की रमणीक गुफाएं जैन सन्तों के समर्थ व्यक्तित्व एवं कृतित्व को गौरवपूर्ण गाथा हैं। कालान्तर में कुछ गुहाएं अन्य धर्मों के केन्द्र के रूप में परिवर्तित कर दी गईं । उड़ीसा में खण्डगिरि की मंचपुरी गुहा, सर्वगुहा, हरिदासगुहा, वाद्यगुहा, जम्बेश्वरगुहा, छोटा हाथी गुंफा, तत्त्वगुहा और अनन्तगुहा से ऐसे बारह अभिलेख मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि ई० प्रथम शताब्दी पूर्व उड़ीसा में जैन मुनियों के निवास के लिए कलिंग सम्राट् बारबेल की महारानी, राजकुल के सदस्य, न्यायाधीश एवं श्रावक समाज ने बड़ी संख्या में गुफाएं बनवाई थीं। , जैन चित्रकला का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय चित्रकला के मर्मज्ञ विद्वान माननीय श्री रामकृष्ण दास ने भारतीय चित्रकला के सर्वाधिक प्राचीन केन्द्र सरगुजा जिले के रामगढ़ पहाड़ी पर स्थित जोगीमारा - सीताबेंग गुफाओं के कुछ चित्रों की जैनों से सम्बद्धता के संकेत दिए हैं। पल्लववंशीय राजा महेन्द्रवर्मा ने धर्मान्तरण से पूर्व तिरुच्चिरापल्ली के निकट चित्तन्नवासल में एक गुफा मन्दिर बनवाया था । गुफा १. जैन बलियोग्राफी (छोटेलाल जैन), वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका २८२ २. श्री मुनीशचन्द्र जोशी, जैन कला एवं स्थापत्य -- खंड -२, पृ० २५१ ३. दृष्टव्य, डॉ० र० चम्पकलक्ष्मी, जैन कला एवं स्थापत्य -- खंड - १, पृ० १००-१०७ ४. श्री अमलानन्द घोष, जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड- १, पू० ११ जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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