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________________ प्रदेश में उस समय १० हजार से अधिक जैन मन्दिर थे। इसी प्रकार श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी' ने लिखा है कि सम्राट् कुमारपाल ने आचार्य हेमचन्द्र के परामर्श से ११६० ई० में जैन मत अंगीकार किया और 'परमअर्हत' की उपाधि ग्रहण की। उसके राज्य में १४१४० जैन मन्दिरों का निर्माण कराया गया । सुप्रसिद्ध मध्यकालीन इतिहास-लेखक डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "आबू का जैन मन्दिर मुसलमान काल से पहले की भारतीय स्थापत्य कला का सर्वांग सुन्दर उदाहरण है ।" और दिलवाड़ा के जैन मन्दिरों के कलात्मक वैभव के सम्बन्ध में महापण्डित राहुल सांकृत्यायन का कथन है कि "वस्तुपाल - तेजपाल की अमरकृति भारतीय शिल्प की अमर निधि है । संगमरमर को मोम और मक्खन की तरह काटकर सुन्दर फूल-पत्ते निकाले गए हैं।" "इस प्रकार स्पष्ट है कि संख्या एवं गुणवत्ता दोनों दृष्टि से जैन मन्दिरों का अपूर्व कीर्तिमान रहा है । जैन धर्म में मूर्ति पूजा का विधान भागवृद्धि के लिए किया गया था तीर्थकर प्रतिमाएँ सांसारिकता में लिप्त मानव समाज को आत्मानुसन्धान के लिए प्रेरित करती है। जैन मूर्तियों के मुखमंडल पर अनन्त शांति एवं वीतराग भाव के दर्शन होते हैं तीर्थंकर मूर्तियों में अन्तर्निहित सौन्दर्य को देखकर कलाप्रेमी भावविह्वल हो जाते हैं। महान् कला प्रेमी जमिन रोड भी जैन मूर्ति शिल्प की कायोत्सर्ग मुद्रा और उसके दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। उन्होंने लिखा है कि "यदि हम किसी जैन सन्त की दिगम्बर प्रतिमा और प्रमान के प्राचीन वास्तुशिल्प के अन्तर्गत अपोलो (सूर्य) देवता की मूर्तियों को साथ-साथ रखकर देखें तो दोनों में इतनी अधिक समानता है कि हम सहसा यह सोचने लगते हैं कि कदाचित दोनों का स्रोत एक ही है। यूनान में कई स्थानों पर उपलब्ध अपोलो देवता की नग्न प्रतिमाओं का समय ईसा से पूर्व सातवीं से पांचवीं सदी तक माना गया है। यद्यपि अलग-अलग प्रदेशों में मिलने वाली इन मूर्तियों में तकनीक और निर्माण सामग्री की दृष्टि से कुछ अन्तर है किन्तु सभी एकदम सीधी खड़ी हुई मुद्रा में हैं, दोनों बांहें देहयष्टि से सटी हुई हैं और एक पांव कुछ आगे की ओर बढ़ा हुआ है। जैन तीर्थकरों की प्रतिमा और यूनानी देवता की प्रतिमा दोनों में मूर्तिकार ने एक वीर और अतिमानवीय सत्ता के स्वामी के व्यक्तित्व की झलक एक पूर्णतया विवस्त्र प्रतिमा के माध्यम से प्रस्तुत की है। दोनों में कन्धों की चोड़ाई बहुत अधिक है, कमर पतली है और आगे की ओर से खड़ी हुई मुद्रा में दोनों भुजाएं देहयष्टि के साथ साठी हुई हैं। जैन तीर्थंकरों की दिगम्बर प्रतिमाओं में कायोत्सर्ग का मूर्तिमान चित्रण है। कायोत्सर्ग योग साधना की वह चरम स्थिति है जिसमें साधक सभी प्रकार के भौतिक प्रलोभनों से मुक्त हो जाता है । भगवान् बाहुबली के सम्बन्ध में तो प्रसिद्ध है कि इस स्थिति में उनके अंगों में माधवी लताएं लिपट गयी थीं और चरणों के आसपास चीटियों ने घर बना लिए थे । साधना की इस चरम स्थिति में कोई शारीरिक क्रिया नहीं होती और निविकल्प ध्यान के माध्यम से धर्ममय यह काया इतनी शुद्ध और निष्कलंक हो जाती है कि उसमें देवी आलोक के दर्शन होते हैं। यह पूर्णता की यह स्थिति है जिसमें निराकर का तेज है और साकार पदार्थ में रहने वाला कोई कलुष नहीं है। यूनान के सूर्य देवता ( अपोलो) और जैन प्रतिमाओं में एक मूलभूत अन्तर यह है कि जैन प्रतिमाओं का अभीष्ट एक आध्यात्मिक आदर्श उपस्थित करता है, न कि शरीर सौष्ठव का प्रभावशाली प्रदर्शन । जैन प्रतिमाओं की नग्नता में आध्यात्मिक वैराग्य झलकता है, न कि सुन्दर और पुष्ट देहयष्टि । यूनानी सूर्य देवता की प्रतिमा में स्नायुमण्डल के सुन्दर एवं सुपुष्ट गठन को उभारा गया है जबकि जैन प्रतिमाओं में ऐसा संकेत भी नहीं है। जैन प्रतिमाओं में साधना की चरम स्थिति (समाधि) में पहुंचे योगी के दर्शन होते हैं और मूर्तियों की समग्र शरीर रचना और विशाल बाहुओं में समाधि की सहजता झलकती है। इस स्थिति में आत्मा वायविक परिवेश से बिल्कुल कटकर परमात्मा से एकाकार होकर पूर्णता को प्राप्त करती है।"" इस प्रकार जैन तीर्थंकर प्रतिमाएं इन्द्रियों पर आत्मा की जय का महाकाव्य हैं। सुल्तान महमूद गजनी, शहाबुद्दीन, मुहम्मद गौरी आदि विदेशी मुसलमानों के निरन्तर आक्रमणों के परिणामस्वरूप जैन स्थापत्य कला को आघात पहुंचा। धर्मान्ध शासकों की विरोधी नीति के कारण शताब्दियों की साधना से निर्मित अनेक कलात्मक जैन मन्दिर ध्वस्त कर दिए गए और उनके अवशेष से नई इमारतें खड़ी की गई। श्री एच० एच० कोल ने १८७२ ई० में लन्दन में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'प्राचीन दिल्ली का वास्तुशिल्प' में कुतुब मीनार के निकट स्थित 'कुब्बत-उल-इस्लाम' मस्जिद का उल्लेख करते हुए ठीक ही लिखा है कि मस्जिद के दक्षिणी खंड के एक प्रस्तर स्तम्भ में महात्मा बुद्ध अथवा किसी जैन तीर्थंकर की प्रतिमा देखी जा सकती है। मस्जिद की छतों और गुम्बदों में जैन वास्तुशिल्प की छाप स्पष्ट है । स्तम्भ भी वैसे ही हैं जैसे आबू पर्वत में हैं। छत और कम दिखाई देने वाले खण्डों में जैन सन्तों (तीर्थंकरों) की ६ 7 १. जैन लियोफ्री (छोटेलाल जैन) वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका ० १२५७ २. वही तालिका ६१८ Jain Education International आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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