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________________ (५) अभिलेखों में जैन मुनियों के गणों, कुलों और शाखाओं का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार के गण, कुल एवं शाखा श्वेताम्बर आगम 'कल्पसूत्र' की स्थावरावली में तथा कुछ वाचक आचार्यों के नाम नन्दिसूत्र की पट्टावली से मिलते हैं। तीर्थकर मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणी का चित्रांकन भी हुआ करता था। यक्षिणी चक्रेश्वरी, अम्बिका की पृथक् मूर्तियाँ बननी आरम्भ हो गई थीं। यक्ष मूर्तियों में नेगमेष एवं धरणेन्द्र की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। जैन देव कुल के क्रमिक विकास को समझने में यहाँ की मूर्तियां उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। (७) 'देवनिर्मित वोद स्तूप', आयागपट, सरस्वती की आकर्षक प्रतिमा इत्यादि जैन कला की सम्पन्नता एवं विकासोन्मुखी स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं। बौद्ध साहित्य के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध मानवाकार मूर्तियों के निर्माण को उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। इसी लिए प्रारम्भिक बौद्ध काल में महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण नहीं हो पाया। कालान्तर में जैन धर्म में मूर्ति पूजा की लोकप्रियता एवं महत्त्व को दृष्टिगत करते हुए बौद्ध धर्मानुयायियों ने भगवान् बुद्ध की मूर्ति बनाने की परम्परा प्रारम्भ की। इस सम्बन्ध में डॉ. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी ने बुद्ध-प्रतिमा के निर्माण के आधार का विश्लेषण करते हुए लिखा है-"बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति कदाचित् भरहुत-कला में दृष्टिगोचर होने वाली दीर्घ तापसी की प्रतिमा को देखकर बनाई गई हो। कुछ विद्वानों के मतानुसार मथुरा से प्राप्त जैन-आयागपट्टों पर अंकित तीर्थकर प्रतिमा भी इसका आधार हो सकती हैं।'' । श्री शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी ने एक कुषाणकालीन बुद्ध प्रतिमा की चरण चौकी पर जैन मूर्ति शैली के प्रभाव का उल्लेख किया है। डॉ० राखलदास वंद्योपाध्याय ने भी मानकुंवर से प्राप्त भगवान् बुद्ध (गुप्त सं० १२६) की बहुचर्चित मूर्ति की मथुरा से प्राप्त तीर्थकर प्रतिमा (गुप्त सं० ११३) से तुलना करते हुए कहा है कि बुद्ध की मूर्ति में प्रयुक्त अभयमुद्रा जिन मूर्तियों से ली गई है। उनके मतानुसार मानकुंवर और उक्त जैन मूर्ति में सिंहासन के सिंह, धर्मचक्र और उसका पीठक और इसी प्रकार स्वयं बुद्ध की आकृति कुषाण परम्परा में है, जैन मूर्ति में श्रद्धावनत भक्त भी इसी प्रकार अंकित हुए हैं। इन सन्दर्भो से सिद्ध होता है कि प्रारम्भिक बौद्ध मूर्तियों पर जैन मूर्ति कला का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ा होगा। गुप्तकालीन जैन मन्दिर एवं मूर्तियां अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। देवरिया जिले के अन्तर्गत सलेमपुर मझोली से पांच मील दूर स्थित कहांव ग्राम से प्राप्त स्तम्भलेख इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस अभिलेख में सम्राट के नाम के साथ गुप्त सम्वत् का भी प्रयोग किया गया है। "पचन्द्रांस्थापयित्व..." से ज्ञात होता है कि भद्र नामक व्यक्ति ने पांच तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा में इस स्तम्भ का निर्माण कराया था। जैन स्थापत्य की विशिष्ट शैली मेरुओं में भी चार, आठ एवं बारह पहल होते हैं। जैन मूर्ति शास्त्र में पांच जैसी विषम संख्या के उपयोग की जानकारी नहीं मिलती। प्रस्तुत अभिलेख से जन स्थापत्य की दुर्लभ विधा-पांच तीर्थंकरों से युक्त वेदिका की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि जैन देव शास्त्र पर शोधपरक कार्य करने वाले अनुसन्धाताओं के लिए अत्यन्त उपादेय है। जैन मूर्तिशास्त्र में वैविध्यपूर्ण मूर्तिकला का विधान है । जैन धर्मानुयायियों ने पाषाण की भांति धातु में भी सबसे पहले तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण किया था। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम में भगवान् पार्श्वनाथ की कांस्य मूर्ति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन धातु प्रतिमा के रूप में जाना जाता है। धातु प्रतिमाओं की दृष्टि से गुप्तकाल में अनेक जन प्रतिमाएं निर्मित हुईं। चौसा में मिट्टी की खुदाई में से प्राप्त जैन धातु मूर्ति समूह (१६ तीर्थंकर प्रतिमा, १ कल्पवृक्ष, १ धर्मचक्र) का निर्माण प्रारम्भिक कुषाणकाल एवं आरम्भिक गुप्त काल में हुआ था। जैन धातु प्रतिमा का यह समूह बिहार में जैन धर्म के सबल अस्तित्व का द्योतक है। कालान्तर में सुरक्षा की दृष्टि से भी धातु-प्रतिमाओं का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। आज देश-विदेश के संग्रहालयों एवं जैन मन्दिरों में लाखों की संख्या में जन धातु प्रतिमाएँ विराजमान हैं। जैन समाज में मूर्तियों की इस बहुलता का कारण जैन धर्म ग्रन्थों में वर्णित पुण्य कर्म बंध का विवेचन रहा होगा। आचार्य वसुनन्दि ने श्रावकाचार की ४८१वीं गाथा में कहा है-"जो कुन्थुम्भरि के पत्र बराबर जिन मन्दिर बनाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिन प्रतिमा की स्थापना करता है वह मनुष्य तीर्थकर पद के योग्य पुण्यबंध करता है।" फलस्वरूप अपने भावी जीवन को सुखद बनाने की दष्टि से श्रावक समुदाय ने भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में जिनबिम्बों एवं मन्दिरों का निर्माण कराया। श्री आर० डी० बनर्जी ने चीनी यात्री युवान च्वांग के विवरणों को आधार मानकर इस तथ्य की पुष्टि की है कि उड़ीसा के गौड १. डॉ. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, प्राचीन भारतीय मूर्तिविज्ञान, पृ० १६६ २. दृष्टव्य श्री राखलदास वंद्योपाध्याय, गुप्त युग, पृ० १२३-१२४ ३. जैन बिबलियोग्राफी (छोटेलाल जैन), वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका सं० १२०७ जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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