________________
जैन समाज सदैव राष्ट्रीय धारा का अंग रहा है और अपनी देशभक्ति एवं स्वामिभक्ति के लिए प्रसिद्ध रहा है। लोभ के वशीभूत देश के हितों की उपेक्षा करने वाले व्यक्तियों को जैन काव्यकारों ने महापापी एवं घृणित बतलाया है। रणमल्ल के देशद्रोह को देखकर जैन कवि नयचन्द्रसूरि की आत्मा क्रंदन कर उठी थी-"द्राक् वक्त्र रणमल्ल ! कृष्णय निजं पापिस्त्वमत्युच्चकै ।"
भारतीय स्वातन्त्र्य आन्दोलन में जैन समाज सदैव अग्रणी रहा है । इस आन्दोलन की सभी प्रमुख धाराओं-क्रान्तिकारी गतिविधियां, अहिंसक आन्दोलन और आजाद हिन्द फौज की गतिविधियों में जैन समाज तन-मन-धन से समर्पित रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित स्वदेशी आन्दोलन जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। स्वदेशी की भावना का पालन करने के लिए उन्होंने अपने मन्दिरों में पूजा करने वाले भाई-बहनों के लिए खद्दर के कपड़े एवं कश्मीरी केशर अथवा चन्दन के तिलक को मान्यता दी थी। इस सम्बन्ध में मि० जन ने सन् १९२२ में प्रकाशित 'जैन एवं स्वदेशी' लेख में यह उल्लेख किया है कि जैन समाज ने यह निर्णय किया था कि पूजा के समय मन्दिरों में हाथ से कते हुए खद्दर से बने हुए वस्त्र पहने जाएँ और यदि शुद्ध कश्मीरी केशर न मिले तो केवल चन्दन का ही व्यवहार किया जाए।
भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास के सम्यक दिग्दर्शन के लिए समाज का यह दायित्व हो जाता है कि वह अपनी ऐतिहासिक विरासत की समुचित सुरक्षा का प्रबन्ध करे। काल के क्रूर प्रहारों से बची हुई पुरातात्विक सामग्री से हम अपने गौरवशाली अतीत की कड़ियों को शृंखलाबद्ध कर सकते हैं। आवश्यक प्रबन्ध व्यवस्था, उचित रख-रखाव आदि के अभाव में अनेक महत्त्वपूर्ण कलाकृतियां एवं पाण्डुलिपियाँ नष्टप्राय अवस्था में पहुंच गई हैं। माननीय रूसी विद्वान् इ० मिनायेव महोदय ने फरवरी १८७५ में बिहार राज्य के बौद्ध, जैन और हिन्दू स्मारकों को देखा था। इस यात्रा में उनका ध्यान स्थानीय संग्रहालय की ओर आकर्षित हुआ, जो सर्वथा उपेक्षित अवस्था में था, हालांकि मिनायेव के शब्दों में वहां प्राचीन अभिलेखों, स्तम्भों, मूर्तियों आदि का बहुत अच्छा संग्रह था। मिनायेव ने इन स्मारकों के भविष्य के सम्बन्ध में अपनी चिन्ता को अपनी डायरी में इस प्रकार शब्दबद्ध किया है :-"इस संग्रह में अनेक रोचक वस्तुएं हैं, जिनका अधिक अच्छा रख-रखाव होना चाहिए और फोटो छपने चाहिएँ। सभी वस्तुएं बाग़ में रखी हुई हैं, इस तरह धूप-पानी से बिगड़ रही हैं, और कुछ वर्ष बीतने पर इस संग्रह में से कुछ विज्ञान के लिए सदा-सदा के लिए खो जायेंगी।"३
___ सांस्कृतिक सम्पदा की दृष्टि से भारतवर्ष का जैन समाज सनातन काल से समृद्ध रहा है। एक पुरातत्वशास्त्री के अनुसार सम्पूर्ण भारतवर्ष में शायद एक भी ऐसा स्थान नहीं होगा जिसे केन्द्र बनाकर यदि बारह मील व्यास का एक काल्पनिक वृत्त खींचा जाए तो उसके भीतर एक या अधिक जैन मन्दिर, तीर्थ, बस्ती या पुराना अवशेष न प्राप्त हो जाए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुई खदाइयों में जैन अवशेषों की संख्या को दृष्टिगत करते हुए महाप्राण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ऐंटिक्वेरियन शब्द की व्यंग्यात्मक व्याख्या करते हुए 'रामायण का समय' शीर्षक लेख में कहा है-"दो चार ऐसी बँधी बातें हैं जिन्हें कहने से वे ऐंटिक्वेरियन हो जाते हैं। जो मूर्तियां मिली वह जनों की हैं, हिन्दू लोग तातार से या और कहीं पश्चिम से आये होंगे इत्यादि ।” महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को काशी के जैन वैभव ने चकित कर दिया था। उन्होंने अपनी अन्वेषणपरक अनुभूतियों को व्यक्त करते हुए पुरावृत्त संग्रह में लिखा है(अ) काशी के पंचक्रोशी मार्ग के पद-पद पर पुराने बौद्ध व जैन मूर्तिखण्ड, पुराने जैन मन्दिरों के शिखर, दासे, खम्भे और चौखटे टूटी-फूटी
पड़ी हैं । (आ) हमारे गुरु राजा शिवप्रसाद तो लिखते हैं कि-"केवल काशी और कन्नौज में वेदधर्म बच गया था।" पर मैं यह कैसे कहें, वरन यह
कह सकता हूँ कि काशी में सब नगरों से विशेष जैन मत था और यहीं के लोग दृढ़ जैनी थे। (इ) पंचक्रोशी के सारे मार्ग में बरंच काशी के आसपास के अनेक गाँव में सुन्दर-सुन्दर शिल्पविद्या से विरचित जैन खंड पृथ्वी के नीचे
और ऊपर पड़े हैं। (ई) कपिलधारा मानो जनों की राजधानी है। कारण, ऐसा अनुमान होता है कि प्राचीन काल में काशी उधर ही बसती थी, क्योंकि
सारनाथ वहां से पास ही है और मैं वहां से कई जैन मूर्ति के सिर उठा लाया हूँ।
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने 'मेरी जीवन यात्रा (पहला भाग)' में सन् १९१० के संस्मरणों में जैन पुरातात्विक सामग्री की उपेक्षा के सम्बन्ध में अपनी मनोव्यथा को इस प्रकार व्यक्त किया है-अभी सारनाथ का जादूघर नहीं बना था, खुदाई में निकली मूर्तियां जैन मन्दिर के पीछे वाले चारदीवारी घिरावे में रखी हुई थीं। वहां एक काले खां नाम के आदमी थे। पूछने पर उन्होंने अपने को सिंहाली बतलाया। उन्होंने बुद्ध की
१. जैन बिबलियोग्राफ़ी (छोटेलाल जैन), वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, तालिका १९४७ २. ग० बोंगाद : अ० विगासिन, भारत की छवि, पृ० १११-११२
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org