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(ख) पृथ्वी के स्वरूप में काल-कम से परिवर्तन शास्त्रसम्मत
(१) पृथ्वी के दो रूप हैं-शाश्वत व अशाश्वत । जैन आगमों में पृथ्वी के शाश्वत (मूल) रूप का ही वर्णन है, परिवर्तनशील भूगोल का नहीं।
वस्तुतः पृथ्वी थाली के समान चिपटी व समतल ही थी। किन्तु अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ में इस पृथ्वी पर भारी कचरा (कूड़े-मलवे का ढेर) इकट्ठा हो गया, जो कहीं-कहीं तो लगभग एक योजन ऊंचा तक (४००० मील) हो गया है।' यह कचरा भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में ही इकट्ठा होता है, शेष म्लेच्छ खण्डों में नहीं। यह कचरा अवसर्पिणी काल के अन्त में (खंड प्रलय के समय) प्रलयकालीन मेघों की ४६ दिनों तक की भयंकर वर्षा से ही नष्ट हो पाता है। प्रलयकालीन मेघ आग वर्षा कर इस बड़े हए भूभाग को जलाकर राख कर देते हैं। उस समय आग की लपटें आकाश में ऊंचे लोकान्त तक पहुंच जाती है। मेघों की जल-वर्षा से भी पृथ्वी पर कीचड़ आदि साफ होकर, पृथ्वी का मूल रूप दर्पणतलवत् स्वच्छ व समतल प्रकट हो जाता है।
पृथ्वी पर काल-क्रम से पर्वतादि के बढ़ने तथा पृथ्वी की ऊंची-नीची हो जाने की घटना का समर्थन जैनेतर पुराणों से भी होता है । भागवत पुराण में वर्णित है कि पृथु राजा के समय, पृथ्वी पर बड़े-बड़े पहाड़ (गिरिकूट) पैदा हो गए थे। पृथ्वी से अन्न उपजना भी बन्द हो गया था। उस समय, राजा पृथु ने प्रजा की करुण-पुकार पर पृथ्वी पर बढ़े गिरिकूटों को चूर्णकर, भूमि की समतलता स्थापित की थी।
(२) जैन-आगम साहित्य में वर्णित है कि द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ के समय द्वितीय चक्रवर्ती सगर महाराज के ६० हजार पूत्रों ने अष्टापद (कैलाश) तीर्थ की सुरक्षा हेतु 'दण्ड रत्न' से चारों ओर परिखा खोद डाली थी। उस परिखा (खाई) को गंगा नदी से धारा (नहर) निकाल कर उसके जल से भर दिया था।
. कहा जाता है कि बाद में नागकुमार के कोप से वे सभी पुत्र ध्वस्त हो गए थे। इधर गंगा का जल प्रचण्ड वेग धारण करता जा रहा था । सगर चक्रवर्ती की आज्ञा से तब भगीरथ ने गंगा के प्रवाह को बांधने का प्रयास किया, और वापस उस जल को समुद्र की ओर मोड़ दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार, एकबार शत्रुजय तीर्थ की रक्षा का भाव चक्रवर्ती सगर के मन में आया। उसने अपने अधीन व्यन्तर देवों को कहा कि वे लवण समुद्र से नहर ले आवें । दैवी शक्ति से उस समुद्र का जल शत्रुजय पर्वत तक आया, किन्तु मार्ग में पड़ने वाले अनेक देशों व क्षेत्रों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस महाविनाश से सौधर्म इन्द्र का आसन डोला । अंत में सगर चक्रवर्ती ने समद्र को आगे बढ़ने से रोक दिया ।परिणामतः, जहां तक समुद्र प्रविष्ट हो गया था वहीं रुक कर रह गया।
१. पथ्वी का उच्चतम भाग हिमालय का गौरीशंकर (माउण्ट एवरेस्ट) है जो समुद्रतल से २६ हजार फीट (लगभग), साढे पांच मील
ऊंचा है। समुद्र की अधिकतम गहराई ३५४०० फीट (लगभग ६ मील) नापी गई है । इस प्रकार पृथ्वी-तल की ऊंचाई-नीचाई साढे ग्यारह मील के बीच हो जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि समभूमि से लवणसमुद्र का जल १६ हजार योजन ऊचा है ।(त्रिलोकसार, ६१५, समवायांग-१६/
११३)। २. एवंकमेण भरहे अज्जाखंडम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वडि ढंगदा भूमी (तिलोयपण्णत्ति-४/१५५१)। ३. तिलोयप. ४/१५५२ ४. (क) ताहे अज्जाखंडं दप्पणतलतुलिदकतिसमवट्ट । गयधूलिपंककलुस होइ समं सेसभूमीहिं (तिलोयप. ४/१५५३) ।। विसग्गिवरि
सदड्ढमही। इगिजोयणमेत्तमधो चुण्णीकिज्जदि हु कालवसा (त्रिलोकसार-८६७)। (ख) भोगभूमि में पृथ्वी दर्पणवत् मणिमय होती है (त्रिलोकसार-७८८)। (ग) भागवतपुराण में भी संवर्तक वन्हि द्वारा भू-मण्डल के जलने का वर्णन प्राप्त है (भागवत पुराण-१२१४।६-११) । सम्भवतः यह स्थिति अवसर्पिणी के समाप्त होने तथा उत्सर्पिणी के प्रारम्भ के समय की है । चूर्णयन् स्वधनुष्कोट्या गिरिकूटानि राजराट् । भूमण्डलमिदं वैन्यः प्रायश्चक्रे समं विभुः (भागवत पुराण-४११८।२६) । उत्तरपुराण-४८१०६-१०८, पद्मपुराण (जैन)-५२४६-२५२, वैदिक परम्परा के भागवत पुराण में सगर-वंश, भगीरथ द्वारा तपस्या करने, शिव द्वारा गंगा के वेग को धारण करने की स्वीकृति,
तथा गंगा नदी के पृथ्वी पर अवतरण होने आदि की कथा वर्णित है (द्र. भागवत पु. ६।।१-१२) । जैन धर्म एवं माचार
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