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________________ उत्तम ब्रहमचर्य : मोक्षमार्ग का अन्तिम चरण श्री प्रतापचन्द्र जैन ब्रह्मचर्य धर्म के रूप व श्रेणियां उत्तम ब्रह्मचर्य मोक्षमार्ग के दस धर्मों में एक है और अन्तिम भी। उसके दो रूप हैं : स्थूल-व्यवहार-रूप और सूक्ष्म-निश्चय-रूप । उसकी श्रेणियाँ तीन हैं : उत्तम, मध्यम और जघन्य । स्थूल रूप में शुक्र रक्षा को ब्रह्मचर्य कहा है। शरीर में सात धातुएं होती हैं, उनमें एक शुक्र है । इसे वीर्य, ब्रह्म और बिन्दु भी कहते हैं । सातों धातुओं में यह सर्वोपरि, सर्वोत्कृष्ट है। शुक्रक्षयात् प्राणक्षयः। सृष्टि रचना की दृष्टि से यह बीज रूप है। योगशास्त्र २/१०५ में बताया गया है कि इसकी रक्षा से आयु दीर्घ होती है, अस्थियां वज्र समान होती हैं और शरीर पुष्ट । इससे बलशालिता प्राप्त होती है और तेजस्विता आती है। भर्तृहरि के अनुसार शुक्र रक्षा से विष भी प्रभावहीन हो जाता है । ऋषि दयानन्द इसके उदाहरण हैं। उन्हें जोधपुर में एक बार कांच पीसकर पिला दिया गया। वे ब्रह्मचारी व शुक्र रक्षक थे। शुक्र-शक्ति ने उन्हें दिये गये विष को प्रभावहीन कर दिया था। स्थूल जघन्य ब्रह्मचर्य ___ मर्यादा एवं मानसिक पवित्रता के साथ अपनी विवाहिता स्त्री से ही सन्तोष कर अन्य सभी स्त्रियों को अवस्थानुसार माता, बहिन व पुत्री के समान समझना स्थूल जघन्य ब्रह्मचर्य धर्म/अणुव्रत है। महीने में २६ दिन पर नारी/पर पुरुष से रमण करने वाले यदि किसी एक दिन विशेषकर व्रत लेकर उस दिन दृढ़ रहकर उसका हर कीमत पर पालन करते हैं तो वह भी पुण्योन्मुख होने से श्लाध्य है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३३८) में भी कहा है : "जो मण्णदि परमहिलं जणणीबहिणीसुआइसारिच्छं। मणवयणे कायण वि बंभवई सो हवे थूलो॥"अर्थात मन, वचन और काय से पर स्त्री को जो माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है, उसके स्थूल ब्रह्मचर्य होता है। स्थूल ब्रह्मचर्य व्रत धारक को नारी जाति की झलक अथवा उसके स्पर्श से बचना आवश्यक नहीं है। बचा भी नहीं जा सकता। जननी नारी ही तो है, जो तीर्थकर तक को जन्म देती है। वह अपने स्तनों से दूध पिलाती है और पाल-पोषकर बड़ा एवं योग्य बनाती है। भगनी और पुत्री भी तो नारी ही है। नारी जाति को विष बेल कहना अनुचित ही नहीं, वरन् उसके प्रति अन्याय भी है। परन्तु हां, दोनों ही सैक्सों के कामाकर्षण को विषबेल कहा जाय तो अनुचित नहीं है। बुराई की जड़ तो मन का विकार है । मन में विकार न आने दिया जाय तो नारी-दर्शन और नारी-स्पर्श पथभ्रष्ट नहीं कर सकते। लक्ष्मण जी बनवास में राम और सीता के साथ उनकी सेवा में बराबर रहे। सीताहरण के बाद जब मार्ग में मिले आभूषणों को उनसे पहचनवाया गया कि ये सीता जी के तो नहीं है । तब उन्होंने उत्तर दिया कि : "कंगनं नैव मानामि, नैव जानामि कुण्डले। नपरान्नव जानामि, प्रातः पादानुवन्दनात् ॥" मैं न उनके कंगनों को पहचानता हूँ, और न उनके कुण्डलों को। प्रातः उनके चरणों में नमस्कार करते रहने से उनके नूपरों (बिछुओं) को ही पहचानता हूँ। उल्लेख है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा (४०४) जो णवि जादि वियारं तरुणि-यण-कडक्ख-बाण-विद्धो वि, सो चेव सूरसूरो।" अर्थात् जो स्त्रियों के कटाक्ष-बाणों से विद्ध होकर भी विकार को प्राप्त नहीं होता वह शूर होता है। लक्ष्मण जी ऐसे ही विकारमुक्त थे। तभी तो शूर्पणखा के कटाक्ष और हावभाव उन्हें पथभ्रष्ट नहीं कर सके थे। यही स्थूल जघन्य ब्रह्मचर्य गृहस्थ का धर्म है, जो उसे निवृत्ति की ओर अग्रसर कर जैन धर्म एवं आचार १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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