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________________ शरीर से किसी प्राणी का घात न होना आदि ऐसे अतिशय हैं जो जीवों को सुखी करने वाले तथा दुःख निवारक हैं। तीर्थंकरों के ज्ञानकल्याणक के समय देवों द्वारा किए गए चौदह अतिशय मिलाकर केवलज्ञान के चौबीस अतिशय हो जाते हैं । ये देवकृत अतिशय भी अन्यान्य जीवों के जीवन को सुखमय बना देते हैं। दिव्यध्वनि से तो अगणित जीवों का कल्याण होता ही है, इसके अतिरिक्त विरोधी प्राणियों का विरोधभाव लुप्त हो जाना, पृथ्वी का वातावरण सुखमय हो जाना भी सुख प्रदान करता है। आठ प्रातिहार्य भी केवलज्ञान के समय के हैं। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य रूप फल और उसका वास्तविक उदय ज्ञानकल्याणक के रूप में ही दिखाई देता है, इसलिए ज्ञानकल्याणक सबसे महत्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट कल्याणक है। समवशरण - भगवान के समवशरण में बारह कोठे होते हैं जिनमें भव्य प्राणी देव, गणधर, मुनि, देवियां, चक्रवर्ती राजा तथा अन्य नरेश, विद्याधर और मनुष्य तथा स्त्रियां पशु-पक्षी आदि गर्भव, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यन वैरभाव भूलकर प्रेम से बैठते है और हितकारी वाणी सुनते हैं । धर्मोपदेश हेतु निमित्त समोशरण में उपदेश के समय किसी स्त्री को प्रभूति नहीं होती, किसी जीव की मृत्यु नहीं होती, जीवों को कामोद्रेक, रोग, व्यसन, भूख, प्यास आदि शारीरिक पीड़ाएँ नहीं भी होती हैं । तत्र न मृत्युर्जन्म च विद्वेषो नैव मन्मयोत्मादः । रोगान्तकबुभुक्षा पीडा च न विद्यते काचित् ॥ समवशरण में गूंगे को वाणी, अन्धे को देखने की योग्यता, बहरे को सुनने की योग्यता, लूले लंगड़े को चलने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। रोगी वहां पहुंचते ही नीरोग, कोढ़ी सुन्दर, तथा विषैले जीव निर्विष हो जाते हैं। हृदय से वैर विरोध की भावना लुप्त हो जाती है। भगवान के प्रभामण्डल के प्रभाव से अन्धकार न रहने के कारण वहां रात्रि दिन का भेद नहीं रहता है अतः मध्य रात्रि में खिरने वाली वाणी का लाभ भी प्राणी लेते हैं । धर्मयुग के १६ सितम्बर, १९७३ के अंक में प्रभामण्डल तथा उसके दीप्तिचक्र के सम्बन्ध में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिससे प्रभामण्डल की वैज्ञानिकता पुष्ट होती है । इस प्रकार ज्ञानकल्याणक के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए भगवान द्वारा उपदिष्ट जिनवाणी के प्रचार-प्रसार का विशेष आयोजन करना चाहिए । १२६ सिद्ध: यह अनुभूतियों के परे का स्तर है । सिद्ध कार्य-कारण के स्तर से ऊपर उठ जाता है, कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है। सिद्ध के बारे में कहा गया है कि वह न किसी से निर्मित होता है और न किसी का निर्माण करता है। चूंकि सिद्ध कर्मों के बन्धन से मुक्त होता है, इसलिए वह बाह्य वस्तुओं से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है। इसलिये उसे न सुख का अनुभव होता है, न दुःख का सिद्ध अनन्त परमसुख में लीन रहता है । सिद्धपद की प्राप्ति निर्वाण की प्राप्ति के समान है और निर्माण की स्थिति में निषेधात्मक रूप में कहें तो न 1 1 कोई पीड़ा होती है, न सुख, न कोई कर्म न शुशु-अशुभ ध्यान, न क्लेश, बाधा, मृत्यु, जन्म, अनुभूति, आपत्ति भ्रम, आश्चर्य, नींद, इच्छा तथा क्षुधा । स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस अवस्था में पूर्ण अन्तः स्फूर्ति, ज्ञान, परमसुख, शक्ति, द्रव्यहीनता तथा सत्ता होती है । अचारांग में सिद्ध स्थिति का वर्णन इस प्रकार है: "जहां कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं, वहाँ से सभी आवाजें लौट आती हैं; वहाँ दिमाग भी नहीं पहुंच सकता । सिद्ध बिना शरीर, बिना पुनर्जन्म तथा द्रव्य-सम्पर्क से रहित होता है। वह न स्त्रीलिंग होता है, न पुल्लिंगी और न ही नपुंसकलिंगी । वह देखता है, जानता है, परन्तु यह सब अतुलनीय है । सिद्ध की सत्ता निराकार होती है। वह निरायड होता है।" Jain Education International प्रो० एस० गोपालन : जैन दर्शन की रूपरेखा के पंचम भाग 'नीतिशास्त्र' में वर्णित 'षड्स्तरीय संघ-ब्यवस्था', पृ० १६५ से साभार उद्धृत आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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