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________________ उत्तम ब्रह्मचर्य का मार्ग प्रशस्त करता है, और अनाचार एवं विद्वेष पर अंकुश लगाने / रखने का साधन है । स्थूल मध्यम ब्रह्मचर्य जो गृहस्थ श्रावक की सातवीं प्रतिमा धारण कर अपनी विवाहिता स्त्री के साथ भी रमने की इच्छा / भावना को त्याग देता है, पहले भोगे भोगों को मन / विचार में नहीं लाता और स्त्रीराग चर्चा से भी विरत हो जाता है, वह स्थूल मध्यम ब्रह्मचर्य का पालक हो जाता है और ब्रह्मचारी कहलाने लगता है । यह कोई डिग्री / डिकोरेशन नहीं है— बी० ए०, साहित्यरत्न की भांति जैसा कि कुछ व्रती इसे अपने नाम के आगे लगाकर भासित करते हैं। यह तो तलवार की धार पर चलने जैसा धार्मिक दायित्व है, संसार विरत श्रमण मार्ग का माईलस्टोन । वह संसारी होते हुए भी व्रती है। एक कथा है कि एक था युवक और एक थी युवती । दोनों ने ही कौमार अवस्था में मुनियों से अलग-अलग उत्तम ब्रह्मचर्यं व्रत ले लिया था— एक ने पूर्वार्ध का और दूसरे ने उत्तरार्ध का । संयोग से दोनों प्रणय सूत्र में बंध गये । प्रथम मिलनबेला में जब दोनों को यह भेद खुला तो दोनों ने एक-दूसरे के व्रत का आदर किया और गृहस्थ अवस्था में साथ-साथ रहते हुए भी वे उस व्रत का आजीवन अखण्ड पालन करते रहे- जल में कमलवत् | यह है । उत्तम ब्रह्मचर्य का स्टेपिंगस्टोन । उत्तम ब्रह्मचर्य समस्त विषय-वासनाओं का निरोध कर निजात्मा में चरना / रमना उत्तम (सूक्ष्म निश्चय) ब्रह्मचर्य है । केवल मैथुनत्याग, अपनी विवाहिता स्त्री से भी रमण न करना तथा उसकी झलक से एवं स्त्री राग चर्चा से बचना ही उत्तम ब्रह्मचर्य नहीं है । संसार के समस्त ऐशोआराम को तिलांजलि देना, आरम्भ के नौवों धर्मों (क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग और आकिंचन्य) और चारों महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य और परिग्रह त्याग) का सम्यक् पालन करते हुए पांचों इन्द्रियों और छठे मन पर पूर्ण काबू पाकर समस्त वाह्य एवं अंतरंग विषय विकारों को रोक और निकाल बाहर करना श्रमणों का उत्तम ब्रह्मचर्य अर्थात् उसकी सर्वोत्कृष्ट अवस्था है । अनगार धर्मामृत में नहा है "या ब्रम्हणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे च तद् ब्रह्मचर्यव्रतं सार्वभौम अर्थात् ब्रह्म / स्व-आत्मा में शुद्ध चर्या करना ही सार्वभौम ब्रह्मचर्य है । विषय सेवन विष से भी अधिक घातक है जैसा कि आदिपुराण में निरूपित किया है :"बरं विषं यदेकस्मिन् भवे हन्ति न हन्ति था। विषयास्तु पुनन्ति हन्त ! जन्तूननेकशः ॥ - २६ / ७४ अर्थात् विष खा लेना ( विषय से ) कहीं अच्छा है । वह प्राणी को एक ही बार में मारता है, शायद नहीं भी मारे, परन्तु विषयसेवन तो उसे अनन्त बार मारता है । समस्त वासनाओं / बाह्य एवं अंतरंग विषयविकारों को जो निकाल बाहर करता है, वह जीवात्मा इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि स्त्रियों के सर्वांगों को देखते हुए भी वह अपने भाव नहीं बिगड़ने देती । द्वादशानुप्रेक्षा की गाथा ८० में कहा है : " सवंगं पेच्छतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं । सो बम्हचेरभावं, सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥ " अर्थात् स्त्रियों के सर्वांगों को देखते हुए भी जो इनमें दुर्भाव नहीं करता, विकार को प्राप्त नहीं होता, वही वास्तव में दुर्द्दर ब्रह्मचर्य भाव को धारण करता है। आचार्य स्थूलभद्र इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं । वे चार्तुमास में अवध की अनिंद्य सुन्दरी कोशा वेश्या की कामोत्तेजक चित्रों से भरी चित्रशाला में जाकर पद्मासन लगाकर आत्मलीन / ध्यानस्थ हो गये थे। वे चित्र उन्हें तनिक भी आकर्षित / विचलित नहीं कर सके थे और चार माह की दुर्द्धर ध्यान-साधना पूरी करके ही वे वहां से तपे । खरे सोने की भांति वे बेदाग बाहर आये थे । मोक्ष का प्रवेश द्वार ब्रह्मचर्य महाव्रतों में अन्तिम (पांचवां और आत्मा के धर्मों में दसवां है। इन दोनों का ही आरम्भ अहिंसा एवं क्षमा से होता है। ब्रह्मचर्य व्रत / धर्म धारण करने से पूर्व आरम्भ के चारों व्रतों और नौवों धर्मों को धारण करना और पालन करना आवश्यक है। वगैर उनके धारण / पालन के उत्तम ब्रह्मचर्यं चल नहीं सकता । जैसे-जैसे प्राणी उनसे सम्पन्न होता जाता है, और इन्द्रियों, मन तथा राग-द्वेष भाव दमन / शमन करता जाता है, वैसे-वैसे वह उत्तरोत्तर आत्मरमण करता हुआ स्थूल से सूक्ष्म, व्यावहारिक से निश्चय एवं जघन्य से उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण / पालन कर मोक्ष के द्वार पर जा पहुंचता है और अन्त में उसमें प्रवेश कर जाता है। महिसा / क्षमा मोक्षमार्ग का प्रवेश द्वार है तो ब्रह्मचर्य उसका अन्तिम छोर है । इस प्रकार इच्छा / वासनाओं का पूर्ण शमन हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है । कविवर द्यानतराय भी कह गये हैं : "द्यानत दस धम पैड चढ़िके, शिव महल में पग धरा ।" जब तक उत्तम ब्रह्मचर्य का धारण / पालन नहीं, तब तक मोक्ष / मुक्ति भी नहीं। तभी तो तीर्थकरों सहित सभी मोक्षगामियों ने इसका सम्यक् पालन किया था। ब्रह्मचर्य धारण किये बगैर कोई जप, तप, पाठ, प्रतिष्ठा और विधि-विधान भी निर्विघ्न सम्पन्न नहीं होते हैं। विध्याध्ययन के लिए भी इसे अनिवार्य माना गया है । १२८ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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