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________________ के जैन समाज के सम्बन्ध में जानकारी देते हुए लिखा है कि कोल्हापुर राज्य में ५०६२४ जैन निवास करते हैं जिनमें से अधिकांश लगभग ३६००० कृषि व्यवसाय से सम्बन्धित हैं। आचार्यश्री ने अपनी युवावस्था एवं प्रारम्भिक मुनि जीवन में धर्मपरायण जैन कृषकों को फसल के विक्रय एवं खेती के लिए उपयोगी सामग्री क्रय करने के लिए कोल्हापुर में आते हुए देखा था। किसानों का धर्म के प्रति सहज रुझान होता है। आस्थाशील कृषकों एवं निकटवर्ती ग्रामों से आने वाले लाखों व्यक्तियों की धर्म में अडिग आस्था बनाये रखने के भाव से आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने कोल्हापुर के मठ में भगवान श्री ऋषभदेव जी के विशाल जिनबिम्ब को प्रतिष्ठित कराने का निर्णय लिया । संयोग से आचार्य श्री देशभूषण जी के कलकत्ता प्रवास में प्रथम पारणा का योग सेठ पारसमल कासलीवाल सरावगी को प्राप्त हुआ। उस भक्त परिवार ने आचार्यश्री की कलकत्ता में प्रथम पारणा की स्मृति को अमिट बनाने के लिए एक बड़ी राशि दान में निकाल दी। आचार्यश्री ने उस राशि से कोल्हापुर के मठ के लिए भगवान् ऋषभदेव की २५ फीट ऊंची खड़गासन मूर्ति का निर्माण कराया। सन् १९६०-६१ में आपके सान्निध्य में कोल्हापुर के मठ में उपरोक्त प्रतिमा का पंचकल्याणक समारोह हुआ जिसमें कोल्हापुर के नरेश साहु महाराज ने स्वयं उपस्थित होकर भगवान् के चरणों की वन्दना की और महाराज श्री के असाधारण कृतित्व के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट किया। आचार्यरल श्री देशभूषण जी के तत्कालीन समुचित मार्गदर्शन से प्रभावित होकर कोल्हापुर के श्रावकों ने 'श्री आचार्यरत्न देशभूषण शिक्षण प्रसारक मंडल, कोल्हापुर' नामक संस्था का गठन किया। इस संस्था के संरक्षण में एक कॉलेज, एक हाईस्कूल और अन्य अनेक शैक्षणिक गतिविधियां नियमित रूप से चल रही हैं। कोल्हापुर में धर्मप्रभावना के निमित्त आचार्य श्री देशभूषण जी ने मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं निर्माण में विशेष प्रेरणा दी है। उनके सद्प्रयासों से भगवान् श्री जिनेन्द्रदेव के रथोत्सव के लिए एक विशाल रथ का निर्माण भी हुआ है। (उ) सिद्धक्षेत्र चौरासी का विकास परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती, धर्मसम्राट् आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की उत्तर भारत यात्रा के दौरान सिद्धक्षेत्र चौरासी मथुरा में पाषाण का मानस्तम्भ बन गया था, किन्तु आचार्य महाराज के विहार के पश्चात् मानस्तम्भ एक स्तम्भ के रूप में ही खड़ा रह गया। समाज के आपसी विवाद के कारण उस पर छतरी एवं प्रतिमाएँ स्थापित नहीं हो पाई। आचार्य श्री देशभूषण जी ने बद्धिमत्तापूर्वक विवाद को सुलझा दिया और उनके सद्प्रयासों से मानस्तम्भ का प्रतिष्ठा समारोह सन् १९६६ में सम्पन्न हआ तथा सिद्धक्षेत्र चौरासी की अनेक गतिविधियों को नया जीवन एवं बल प्राप्त हुआ। आचार्यश्री के चरण आस्था एवं रचना के प्रतीक हैं। एक गतिशील धर्मचक्र की भाँति उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया है। उनके पावन संचरण से जैन तीर्थों एवं मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं विकास में सहायता मिली है। अतिशय क्षेत्र अकिवाट, विद्यासागर, मांगर, मनोली, दतवाड़, कुम्भोज बाहुबली, मानगांव, जैसिंहपुर इत्यादि उनके समर्थ कृतित्व के अमर दस्तावेज हैं। ऊर्ध्वगामी व्यक्तित्व जैनदर्शन में समस्त संसारी जीवों की चार गतियां मानी गई हैं-मनुष्य गति, तिथंच गति, देव गति एवं नरक गति । मनुष्य और तिथंच गति वाले भाग्यवान् जीव अपने सत्कर्मों का सुफल भोगने के लिए देवगति प्राप्त करते हैं, और पापी जीव अपने दुष्कर्मों का दण्ड भोगने के लिए नरक गति में जाते हैं । जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का द्वार केवल मनुष्य गति के जीवों के लिए सुलभ है - मणुवगईए वि तओ मणुवगईए महब्वदं सयलं । मणुवगदीए झाणं मणुवगदीए वि णिव्वाणं ॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल गाथा सं० २११) अर्थात् मनुष्य गति में ही तप होता है, मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्य गति में ही ध्यान होता है और मनुष्य गति में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के शब्दों में - "देव इच्छा रहते हुए भी आत्मशुद्धि के लिए उपवास, व्रत, संयम नहीं कर सकते। यही कारण है कि अनादि काल से अब तक एक भी देव संसार से मुक्त नहीं हो सका । आत्मा की शुद्धि और मुक्ति इस मानव-शरीर से हुआ करती है। इस कारण मनुष्य-भव संसार में सबसे उत्तम माना गया है।" (उपदेश सार संग्रह, भाग १, पृष्ठ १२) कालजयो व्यक्तित्व ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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