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________________ कोथली का सजीव हाथी भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रमुख मन्दिरों में पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए पशु-पक्षियों की आकृतियों की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। प्रायः छोटी आयु के बालक उनकी सवारी से अपना मनोरंजन करते हैं। एक बार एक व्यक्ति मातृसुख से वंचित सात दिन के गजशावक को आचार्यश्री की शरण में ले आया। आचार्यश्री ने उस गजशावक को भी स्नेह से कोथली के आश्रम में स्थान दे दिया। आज वह गजशावक कोथली क्षेत्र में दर्शन-पूजन के निमित्त आने वाले श्रावकों एवं मुनियों का सूंड उठाकर स्वागत करता है। आचार्यश्री के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए वह नियमित रूप से पुष्प-गुच्छ उनके श्रीचरणों में भेंट करता है । सायंकाल के समय वह अपनी सूंड में दीपक को रखकर विभिन्न मुद्राओं में आचार्य श्री देशभूषण जी की आरती करता है । वास्तव में आचार्यश्री ने कोथली क्षेत्र का जो योजनाबद्ध विकास किया है वह श्रमण संस्कृति के इतिहास में सदैव श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाएगा। (इ) श्री पार्श्वनाथ चूलगिरि (जयपुर) का रचना-शिल्प सन् १९५6 में आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने राजस्थान की राजधानी जयपुर में वर्षायोग स्थापित किया। आचार्यश्री के चातुर्मास का अधिकांश भाग राणा जी की नशिया में व्यतीत हुआ। आचार्यश्री प्रायः तपस्या के लिए नशिया जी की निकटवर्ती पर्वत शृखला पर जाया करते थे। पर्वत के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर उनके मन में विचार आया कि जैन सन्तों की साधना के विकास के लिए यहां तपोभूमि बननी चाहिए । अपने प्रवास काल में आपको यह भी ज्ञात हुआ कि इस पर्वत पर परम तपोनिधि आचार्यकल्प थो श्री चन्द्रसागर जी महाराज एक पांव से खड़े होकर तपस्या किया करते थे। आयिका इन्दुमती जी ने 'आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ' में आचार्य चन्द्रसागर जी की साधना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि तपोरत आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी के निकट प्रायः एक शेर भी आकर बैठ जाया करता था। पहाड़ की रमणीयता एवं प्राकृतिक परिवेश को देखकर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने खानिया क्षेत्र चूलगिरि के विकास का संकल्प कर लिया। चलगिरि के विकास के प्रथम चरण में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने पर्वत पर आद्यतीर्थकर भगवान् श्री ऋषभदेव जी के चरणों की स्थापना कराई। आचार्यश्री की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सखाडिया ने इस नवीन तीर्थ के विकास में विशेष रुचि प्रदर्शित की और विकासमान तीर्थ के लिए भूमि आवंटन में विशिष्ट सहयोग दिया। सन् १९६४ में आचार्यश्री की प्रेरणा से चूलगिरि के विकास को विशेष गति एवं बल प्राप्त हुआ। पहाड़ पर चढ़ने के लिए लगभग ८०० सीढ़ियों का निर्माण हुआ। पर्वत पर आद्यतीर्थकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर स्वामी जी तक की चौबीस टोंकों का निर्माण हुआ। पर्वतशिखर पर स्वच्छ संगमरमर का भगवान् पार्श्वनाथ जिनालय भी स्थापित किया गया। मई १९६६ में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में इस तीर्थ का शास्त्रोक्त विधि-विधान से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न हुआ। आचार्यश्री की उज्ज्वल शिष्य-परम्परा में से बालब्रह्मचारिणी क्षुल्लिका राजमती जी ने आचार्य श्री देशभषण जी महाराज के दक्षिण प्रवास काल में चूलगिरि क्षेत्र के विकास में सराहनीय योग दिया है। क्षुल्लिका राजमती जी के अनुभवी मार्गनिर्देशन में पर्वत पर भगवान् महावीर स्वामी जी के भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ है। वस्तुत: आचार्य श्री देशभूषण जी चूलगिरि के माध्यम से राजस्थान में सम्मेदशिखर का लघु संस्करण एवं पर्वतीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र का विकास करना चाहते थे। इसीलिए श्रावकों ने आचार्यश्री की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से चूलगिरि के पर्वत पर शिखरयुक्त मन्दिर बनवाया है। चूलगिरि के नवनिर्माण की गौरवगाथा एवं सांस्कृतिक सम्पदा के दर्शन ने आचार्यश्री को वार्द्धक्य में उत्तर भारत की ओर आने के लिए प्रेरित किया। चूलगिरि पर स्थापित भगवान् महावीर स्वामी जी की लगभग साढ़े उन्नीस फुट ऊंची धवल पाषाण की प्रतिमा के पंचकल्याणक महोत्सव के निमित्त आप सन् १९८१ में जयपुर चातुर्मास के लिए आए। आपके सद्प्रयासों से चूलगिरि के रूप में एक नए दिगम्बर तीर्थ का उद्भव हो गया है। जयपुर की महारानी गायत्रीदेवी के अनुसार पर्वत की उपत्यकाओं में बना हुआ यह तीर्थ वर्तमान में राजस्थान राज्य का शृगार बन गया है। (ई) कोल्हापुर जैन मठ का रचना-शिल्प __ आचार्यश्री अपनी धर्मप्रभावना में कोल्हापुर को विशेष महत्त्व देते आए हैं । उनकी दृष्टि में कोल्हापुर उत्तर एवं दक्षिण का सन्धिस्थल है । कोल्हापुर के निकटवर्ती ग्रामों में जैन धर्मानुयायी बड़ी संख्या में रहते हैं। उनका प्रमुख व्यवसाय परम्परा से खेती रहा है। माननीय डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर ने 'दी इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया' भाग ७ के संशोधित संस्करण सन् १९०८ में कोल्हापुर राज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन सन्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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