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जैन साधना-पद्धति अर्थात् श्रावक की ११ प्रतिमाएं
ब्र० विदयुल्लता शाह
अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक (गृहस्थ) को आत्मा का साक्षात् निर्विकल्प अनुभव तो कणिका मात्र, रात की बिजली-की चमकजैसा, हो गया। लेकिन लीन होने का पुरुषार्थ मन्द है, अनुभव में स्थिर नहीं है, उससे क्षण-क्षण विचलित हो रहा है—अव्रती है-ऐसी दशा में साधक जीव की संसार-देह-भोगों के प्रति सहज ही आसक्ति कम होने लगती है-उनके प्रति उदासीनता और आत्मरमण के प्रति उल्लास —ऐसा संघर्ष साधना-पथ में अवश्य होता है।
अशुभ भावों से बचने के लिए सहज ही शुभभावरूप व्रतादिकों में प्रवृत्ति होती है-शुभ-मंगलप्रद साधनापथ का ही नाम 'प्रतिमा' शास्त्रों में मिलता है। अन्तरंग भावों के अनुसार बाह्य आचरण सामान्यतः हो ही जाता है। कहा है- "संयम अंश जग्यो जहां भोग अरुचि परिणाम, उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम।" साधक की अंतरंग व बाह्य दशा जिस-जिस प्रतिमा में जितनी बढ़ती जाती है, उसी को आचार्यों ने ११ दों में (प्रतिमाओं में) समझाया है। अंतरंग शुद्धि तो ज्ञान-धारा है, और उसके साथ रहने वाले भाव (शुभाशुभ) कर्मधारा है। स्व-स्वरूप की स्थिरता की वृद्धि का पुरुषार्थ यहाँ होता है, साथ ही वीतरागता की वृद्धि भी होती है।
रागांशानुकूल बाह्य क्रियाएं जो होती है उन्हें व्यवहार चारित्र कहा जाता है ।
ग्यारह प्रतिमाओं का परिचय
१. दर्शन-प्रतिमा-दर्शन याने आत्म-दर्शन, आत्म-साक्षात्कार, संवित्ति, प्रतीति, अनुभवन । अपने वीतराग स्वभाव का अनुभव, इसे ही जैन शासन में प्रमाण माना है। हरएक द्रव्य को केवल अपना, स्वद्रव्य का ही, अनुभवन हो सकता है। मैं मेरी ही आत्मा का अनुभवन कर सकूँगी--पराई आत्मा का नहीं। स्कन्ध में भी एक जड़ परमाणु अपना ही अनुभव करेगा, अत्यन्त नजदीक के स्वतन्त्र पर-परमाणु का नहीं । आकाश व काल का नहीं । प्रत्येक स्वतन्त्र अस्तित्व वाला पदार्थ केवल खुद का ही अनुभव कर सकता है, यह अकाट्य नियम है।
इसलिए जब अत्यन्त सौभाग्य की घड़ी आती है, जब अनन्त संसार का किनारा निकट आता है, तब अपने स्वरूप का, स्वभाव का, शुद्ध आत्मस्वभाव का जो वीतरागभाव है, उसका अनुभव आता है। उस समय अनिर्वचनीय जैसी विलक्षण शान्ति और विलक्षण सुख का अनुभव होता है। ऐसा अपूर्व अनुभवन इस जीव ने पहले कभी किया नहीं होता। उस अद्भुत अनुभव का वह स्वाद भुलाने पर भी भूल नहीं पाता । उस तरह का स्वाद नित्य बना रहे, यही तमन्ना जागती रहती है। स्वरस के आनन्द से, सन्तोष से, मेरा अपना द्रव्य केवल आनन्द और शान्ति अनुभव कराने वाला है, वह परिपूर्ण है, उस अनुभव में न जड़ का रस है, न जड़ की गन्ध है, न जड़ का रूप है, न जड़ का वर्ण है, न किसी भी इच्छा की जलन है ! इस आत्मानुभव में किसी भी पर-जड़ चीज का अनुभवन नहीं है ---यहां तक कि इस शरीर का भी नहीं!
अब उसे यही वीतराग दशा हमेशा बनी रहे; बस ! यही धुन दिन-रात 24 घंटे सवार रहती है। ऐसा जगत का सच्चा रहस्य वस्तुव्यवस्था का रहस्य जिसे खुल गया हो, उसे ही आत्मदर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है।
इस आत्म-दर्शन की शक्ति ही अद्भुत है। जब से वीतरागता का अनुभव होता है तब से उस जीव के अत्यन्त भद्र परिणाम होते है। निगोद से लेकर सिद्ध तक सभी जीवों का स्वभाव वीतरागी है। कोई जीव छोटा-बड़ा नहीं । अपने वीतराग खजाने से हरएक भरपूर है । जिन्होंने उस खजाने को पूर्ण रूप से उपलब्ध किया है, वे ही अरिहंत और सिद्ध हैं । आत्मानुभूति से प्राप्त मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ—इस आत्मानुभूति से,उस वीतराग दशा की स्थिरता से ही,वह गड़ा खजाना मिल सकता है, प्राप्त हो सकता है,अन्य मार्ग से नहीं। अपने प्रभु विभु भगवान स्वभाव पर अचल, अकंप, अडिग, निष्कंप श्रद्धा होने को ही आस्तिक्य गुण कहते हैं।
अनादि काल से इस अंतस्तत्त्व के न मालूम होने से यह जीव अपने शरीर पर अत्यन्त मोहित था और शरीर की होने वाली पीड़ा से दुःखी होता था। निजतत्त्व को न समझने वाले प्राणी भी अपने शरीर को होने वाली पीड़ा से दुःखी होते हैं । इसलिए मेरी तरफ से उन्हें
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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