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________________ भावना रहती है, इसलिए वहां द्रव्ययोगरूप से सरागरूप शुभोपयोग और भावयोगरूप से वीतराग रूप शुद्धोपयोग--इस प्रकार मिश्ररूप परिणाम होता है। जितने अंश में सरागरूप शुभोपयोग है, उतने अंश में आस्रव-बंध होता है और जितने अंश में वीतराग रूप शुद्धोपयोग है, उतने अंश में संवरपूर्वक निर्जरा होती है। इसलिए वह अशुद्ध चेतना ज्ञानस्वभाव की तावत्काल-बाधक होने पर भी उसके साथ वीतरागरूप ज्ञानचेतना की भावना रहने से, आगे वह नियम से अशुद्ध चेतना से निवृत्त होकर ज्ञानचेतना रूप परिणति करने से, परम्परा से मोक्षमार्ग की साधक कही गई है। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को अशुद्ध चेतना के प्रति रुचि-राग होने से रागी कहकर बन्धक कहा गया है। सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी को तावत्काल अशुद्धचेतनारूप द्रव्ययोगरूप परिणति होने से तावत्काल अल्पस्थिति-अनुभागरूप आस्रव-बंध होकर भी ज्ञानचेतना की भावयोग रूप रुचि-भावना निरन्तर होने से, तथा उसके कारण संवर-निर्जरा होने से, उसको अबंधक कहकर मोक्षमार्ग का परम्परा-साधक ही कहा है। इसलिए ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जबतक जघन्य अवस्था में, सराग अवस्था में है, तब तक वह यथापदवी व्रतसंयमरूप आवश्यक कर्म कर्तव्यरूप समझकर उसका निर्दोष-निरतिचार पालन करता है। प्रमादी-स्वच्छन्दी होकर निरर्गल-असंयमरूप प्रवृत्ति का कदापि आदर नहीं करता है । वही ज्ञानी अशुद्धचेतना रूप शुभोपयोगरूप प्रवृत्ति से भी अन्त में निवृत्त होकर अपनी ज्ञानचेतनारूप शुद्धोपयोगरूप परिणति में अविचल स्थिर होता है। इसलिए वीतराग शुद्धोपयोगरूप ज्ञानचेतनारूप परिणति को ही मोक्षमार्ग में सर्वथा उपादेय, इष्ट माना गया है। ज्ञानी उसीकी निरन्तर भावना-आराधना करता है। इस प्रकार जैन शासन का मुख्य अंग अहिंसा और अपरिग्रहवाद माना गया है। उसी प्रकार स्याद्वाद तथा अनेकान्तवाद भी जैन शासन का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक-परस्पर-विरोधी उभयधर्मात्मक-सामान्य-विशेष धर्मात्मक-द्रव्य-गुण-पर्याय धर्मात्मक है । इसलिए वस्तु-निरीक्षण तथा वस्तु का परीक्षण, इस दृष्टि से वस्त का यथार्थ ज्ञान, यथार्थ निर्णय कराने वाले हेयोपादेय विज्ञान के रूप में जैनशासन का अनेकान्तवाद बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वस्तु का सामान्य धर्म-द्रव्यधर्म-गुणधर्म यह सदा ध्रुव, सत्, नित्य, एकरूप और अभेद-अद्वैत रूप रहता है, तथा विशेष धर्म-पर्याय धर्म असत -(उत्पाद-व्ययरूप), अनित्य, अनेकरूप, भेदरूप, द्वैतरूप होते हैं। वस्तु के पर्याय धर्म का आश्रय कर्मबंध का-संसार-दुःख का कारण है, यह जानकर पर्यायदृष्टि–बहिरात्मदृष्टि-मिथ्यादृष्टि का सर्वथा त्याग करना चाहिए, और वस्तु का सामान्यधर्म-द्रव्यधर्मगणधर्म, जो सदा ध्र वरूप है, का आश्रय संवर-निर्जरा-मोक्ष का कारण है, अतः उसीको सर्वथा उपादेय मानकर उसीका चिन्तन-मनन-ध्यान करते हुए उसी में अविचल स्थिर होना—यही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है। शाश्वत सुख-शान्ति का यही उपाय है। न्यायशास्त्र के अनेकान्त में एक ही वस्तु में परस्पर-विरोधी सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, तत्-अतत् धर्मों का अस्तित्व अविरोध रूप से अविनाभाव रूप से सिद्ध करना- इतना ही प्रयोजन रहता है। परन्तु अध्यात्मशास्त्र के अनेकान्त में वस्तु का परीक्षण यह मुख्य उद्देश्य होता है । वहां वस्तु का द्रव्यधर्म-गुणधर्म ही एकान्त से (सर्वथा) उपादेय आश्रय करने योग्य है, और वस्तु का पर्यायधर्म एकान्त से (सर्वथा) उपादेय-आश्रय करने योग्य नहीं है, हेय है। इस प्रकार जो दो सम्यक्-एकान्तों का समुदाय हैं, उसको अध्यात्म-दृष्टि से अनेकान्त कहा है। अपने शुद्ध आत्मस्वभाव की रुचि, प्रतीति-अनुभूति-वृत्ति रूप निश्चय-रत्नत्रय ही संवर-निर्जरा का कारण होने से निश्चय मोक्षमार्ग कहा गया है। जब तक निश्चय मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती, तब तक जघन्य अवस्था में आत्मस्वभाव के साधक तथा सिद्ध पंचपरमेष्ठी की भक्ति, व्रत-संयमरूप आचरणरूप शुभोपयोग प्रवृत्ति को व्यवहार धर्म या व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है। वह वास्तव में मोक्षमार्ग नहीं है। क्योंकि वह संवर-निर्जरा का कारण न होकर आस्रव-बंध का ही कारण है । तथापि व्यवहार मार्ग में हेयबुद्धि और निश्चय मोक्षमार्ग में उपादेय बुद्धि, आत्मस्वभाव की रुचि-भावना-इसे भी उस व्यवहारधर्म के साथ होने से परम्परा से मोक्षमार्ग कहा गया है। इस प्रकार जैन शासन का अनेकान्त शासन सदा जयवन्त रहे । जैनशासन को ही श्रमण संस्कृति कहते हैं और उसे जगद्-बन्धु कहा गया है। जिनधर्म जगबन्धुं अनुबद्धमपत्यवत् । यतीन् जनयितुं यस्येत् तथोत्कर्षयितुं गुणः ।। (सागार धर्मामृत, २/७) जैन शासन जगत् के प्राणिमात्र को आत्मकल्याण का मार्ग बतलाने वाला परमकल्याणकारी मित्र है। उसकी परिपाटी चलते रहने के लिए वीतराग विज्ञान का साक्षात् आदर्शस्वरूप श्रमणधर्मः मुनिधर्म निर्माण कर उनमें वीतराग विज्ञान की, रत्नमयधर्म की वृद्धि करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए । वीतराग विज्ञानस्वरूप श्रमणधर्म-मुनिधर्म ही जैन शासन का मूर्तिमन्त साक्षात् आचरित स्वरूप है। विजयतां जैन शासनम्। जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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