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________________ अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव में रहना, इसी का नाम अहिंसा परम धर्म है। आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानात् अन्यत् करोति किम् । परभावस्य कर्ताऽऽत्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ (समयसार कलश, १७-६२) आत्मा का लक्ष्य ज्ञान-दर्शन स्वभाव है। आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। ज्ञान-दर्शन के बिना आत्मा अन्य कुछ भी क्रिया नहीं कर सकता। मैं पर का कुछ भला-बुरा कर सकता हूं-यह विपरीत मान्यता ही व्यवहारी-अज्ञानी लोगों का मोहरूप अज्ञानभाव है। ज्ञानी सहज वैरागी है। जहां समीचीन ज्ञान है वहां पंचेद्रियों के विषय से सहज विरागता अवश्य होती है। जिसमें सहज विराग है वही ज्ञानी समयग्ज्ञानी कहलाता है। जहाँ ज्ञान होकर सहज विराग नहीं है, उस ज्ञान को ज्ञान न कहकर अज्ञान ही कहा है। समयसारकलश-३/११५ में वास्तविक ज्ञानी' को ज्ञानमय मात्र भाव वाला होने से निरास्रव ही बताया है। __ जहां शास्त्रों का बहुत ज्ञान है, परन्तु जहां ज्ञान की ज्ञान में वृत्ति नहीं, स्थिरता नहीं, ज्ञान का निर्णय नहीं, ज्ञान की रुचि नहीं, ज्ञान की पंचेंद्रियों के विषय में वृत्ति है, पंचेंद्रिय-विषय से निवृत्ति-विरक्ति नहीं है, वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है। ज्ञान को परिच्छेद' कहा है। जहां आत्मा-अनात्मा का परिच्छेद-भेद-विज्ञान--- नहीं है, ज्ञान होकर भी जहां विषयों में प्रवृत्ति पायी जाती है, वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है। इस प्रकार निरास्रव ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान कहा है। __ जिस प्रकार ज्ञानपूर्वक वैराग्य ही आत्मसिद्धि के लिए कार्यकारी होता है, उसी प्रकार वैराग्य-पूरक ज्ञान ही आत्मसिद्धि के लिए कारण होता है। 'ज्ञानमेव प्रत्याख्यानम्' ज्ञान का फल प्रत्याख्यान-विरागता कहा है। ज्ञान और विरागता–इनमें परस्पर अविनाभाव संबंध होता है। जहां ज्ञान है वहां विरागता अवश्य होती है। जहां विरागता है वहां ज्ञान अवश्य होता है। विरागता ज्ञानपूर्वक ही होनी चाहिए। वही सच्ची विरागता है। इसी प्रकार ज्ञान विरागतापूरक ही होना चाहिए। जहां ज्ञान-चेतना है, ज्ञान की रुचि है वहां कर्मचेतना या कर्मफल-चेतना की रुचि नहीं रहती है। कर्मचेतना-कर्मफल-चेतना की रुचि अज्ञानमूलक होती है । ज्ञान और अज्ञान की रुचि एक साथ कदापि नहीं रह सकती। इसलिए अध्यात्मशास्त्र में अज्ञानी को ही रागी कहा है और ज्ञानी को विरागी कहा है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी सराग होकर भी उसके निर्मोही होने से, राग की रुचि न होने से, विरागी कहा है। जो विरागी होकर भी मोही है, राग की रुचि रखता है, कर्म-कर्मफल-चेतना को इष्ट-उपादेय मानता है, पुण्य और पुण्यफल को धर्म मानता है, उसको यथार्थ तत्त्वज्ञान न होने से अज्ञानी कहा है। करणानुयोग से भी उसका गुणस्थान मिथ्यात्व ही कहा है। ज्ञानचेतना यही आत्मा का शुद्ध उपयोगरूप परिणाम है। कर्मचेतना और कर्मफल-चेतना-यह आत्मा का अशुद्ध उपयोगरूप विभावपरिणाम है। मन-वचन-काय के अवलम्बन से आत्मप्रदेश की हलन-चलन रूप शुभ-अशुभ क्रिया करने के प्रति, तथा क्रिया का फल सुख-दुःख व उसका वेदन-अनुभवन करने के प्रति जो उपयोग की प्रवृत्ति है, उसको अशुद्ध चेतना कहते हैं । शुद्ध ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग की प्रवृत्ति को शुद्ध-चेतना या ज्ञान-चेतना कहते हैं। ज्ञान-चेतना रूप शुद्ध चेतना करना, यह आत्मा का स्वभाव-परिणमन है। शुभ-अशुभ क्रियारूप-कर्म-कर्मफल-चेतनारूप अशुद्ध चेतना करना यह आत्मा का विभाव-परिणमन है। ज्ञान-चेतनारूप स्वभावपरिणमन करना, इसी का नाम अहिंसा है। कर्म-कर्मफल-चेतनारूप अशुद्ध चेतनारूप विभाव-परिणमन करना ज्ञानचेतना का घातक होने से हिंसा है। (१) ज्ञानचेतना की रुचि-इसीका नाम वीतराग सम्यग्दर्शन है। (२) ज्ञानचेतना की प्रतीति-- इसी का नाम वीतराग सम्यग्ज्ञान है। (३) ज्ञानचेतना रूप-परिणति, ज्ञानचेतना की अनुभूति-इसीका नाम वीतराग सम्यक्-चारित्र है। इसीका नाम अभेद ज्ञानमय या वीतराग रत्नत्रय है। (१) कर्म-कर्मफल-चेतना की रुचि-इसीका नाम मिथ्या-दर्शन है। (२) कर्म-कर्मफल चेतना की रुचिपूर्वक प्रतीति--- इसीका नाम मिथ्याज्ञान है। (३) कर्म-कर्मफल चेतना रूप रुचिपूर्वक परिणति, अनुभूति--इसीका नाम मिथ्याचारित्र है। परन्तु जहाँ-(१) ज्ञानचेतना की रुचिरूप वीतराग सम्यग्दर्शन तो विद्यमान है, परन्तु यदि कदाचित् ज्ञानचेतना रूप वीतराग परिणति करने में असमर्थता है, वहां भाव योग उपयोग ज्ञानधारा और द्रव्ययोग उपयोग रूप कर्मधारा-ऐसी मिश्र परिणति रहती है। उसीको सरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र कहा जाता है। इस सरागसम्यक्त्व और सरागचारित्र अवस्था में व्रत-समिति पावनरूप कर्म-कर्मफल चेतनारूप-अशुद्ध चेतनारूप-परिणति रहती है, तथापि उसमें सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की हेयबुद्धि रहती है, रुचिपूर्वक उपादेय बुद्धि या स्वामित्वबुद्धि-कर्तृत्व बुद्धि-नहीं रहती है। इसलिए वह अशुद्धचेतना रूप परिणति होकर भी उसके साथ ज्ञानचेतना की रुचिपूर्वक आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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