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कुछ भी पीड़ा न हो, यही भाव जागृत होते हैं । दुःखी प्राणि-मान को देखकर अन्दर अनुकम्पा-दयाभाव उत्पन्न हो जाता है।
आज तक इस जीव ने अज्ञान की वजह से जो राग-द्वेष किये, वे ही कर्मबन्ध के असली कारण हैं। उस द्रव्य कर्म से शरीर मिलता है और स्वतंत्र आत्मा इस शरीर में बद्ध होता है, और अपनी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त सुख की स्वाधीनता से वंचित होता है । बद्ध को वह आजादी कहां, जो स्वतंत्र को होती है; वह शक्ति कहां, जो स्वतंत्र व्यक्ति को होती है। अपनी इस गुलामी को मिटाने का एक मार्ग है—कि भाव कर्मों से छुटकारा पाना। इसलिए उसके परिणाम इतने भद्र होते हैं कि दया, दान, सहकार, परोपकार, सदाचार ही वर्तता है। इन भावों से भी बन्ध होता है और भव-मुक्ति नहीं होती-यह जानकर ऐसे शुभभाव भी न हों, इस समय में पूर्ण वीतराग बने तो अच्छा, यही एक तीव्र तमन्ना होती है। लेकिन वीतरागता में चौबीस घंटे नहीं रहा जाता,तब अशुभ से शुभ तो लाख गुना ठीक मानकर शुभ भाव करता है। जब शुभ भी गुलामी हो तो अशुभ तो खुद अशुभ है। उससे तो संसार-दशा में भी तीव्र दुःख ही मिलता है—यह जानकर संसार से भयभीत होता है, उसे संवेग कहते हैं। इस संसार में परद्रव्य का एक कण भी अपना नहीं होता। परद्रव्य की अपने पूर्ण आत्मद्रव्य को जरूरत भी नहीं, ऐसी स्वयंपूर्णता की पक्की श्रद्धा हो चुकी होती है। इसलिए खाना-पीना, शरीर का व्यापार, मन का, वचन का व्यापार इससे भी छुटकारा लेने को चाहने वाला—केवल आत्मस्थिरता बनी रहे, इस विचार से सभी पर-द्रव्यों से, स्त्री, पुत्र से भी मुख मोड़ लिया जाये, ऐसा तीव्र इच्छुक होता है। इसे ही निर्वेद या वैराग्य कहा जाता है। जहां सच्चा ज्ञान है वहां अविनाभाव से वैराग्य भावना रहती ही है, यही विशुद्धि सहज ही अंदरूनी होती है। यहाँ कृत्रिमता की गंध भी नहीं, यह आत्मोन्नति की सच्ची सीढ़ी है। आत्मा की उन्नति इन अत्यन्त भद्र, कोमल, सात्विक परिणामों में है। यह अमली इन्सानियत है। इन्सान इन्सानियत से ही इन्सान कहलाने का पात्र है, अन्यथा वह पशु से भी गिरा हैं। क्योंकि संज्ञी पशु को भी आत्मदर्शन होता है और उसके भी इतने भद्र, विशुद्ध, सात्विक, उदात्त परिणाम होते हैं।
यह नैसर्गिक मनोदशा का दर्शन है। चीन में ब्रेन वॉशिंग का नया तरीका ढूंढा गया। एक आदमी मुश्किल से खड़ा रह सके (बैठ न सके) ऐसे एक केबिन में अत्यन्त ठण्डे पानी का भरा घड़ा आदमी के ऊपर लटकाया जाता है। उस घड़े से एक-एक बूंद जिसका 'ब्रेन वॉशिंग' करना है उसके मस्तिष्क पर निरन्तर गिरता रहे, इसका पूरा इन्तजाम किया जाता है । चौबीस घण्टे में नंगा आदमी, सम्पूर्ण, नीरव वातावरण । केवल टपटप गिरती बूंद की आवाज के अलावा और कोई आवाज नहीं। उस नीरव शान्ति में वह बिन्दु की आवाज वज्र प्रहार जैसी तीव्र मालूम होने लगती है-आदमी का पूरा ढांचा काँप जाता है। बस ! केवल चौबीस घण्टे में वह दूसरा ही आदमी बन जाता है। पूर्व की सब मान्यताएं छोड़ बैठता है । बस अब उसे जिन विचारों का बनाना है उसके (कर्कश) कर्णकटु रेकॉर्ड लगाये जाते हैं। इतना होने पर वह पूरा बदला हुआ आदमी तैयार होता है।।
उक्त स्थिति वैसे ही ऑटोमैटिक ब्रेन-वॉशिंग है। यह उच्च स्तर पर और सत्य के किनारे के निकट पहुंचाने वाली अत्यन्त कल्याणकारी ब्रन-वॉशिंग है। आत्मदर्शन-प्राप्त व्यक्ति भी इन आस्तिक्य, प्रशम, अनुकम्पा, संवेग और वैराग्य की भावना से ओतप्रोत हो जाता है। उस ब्रेन-वॉशिंग में पानी की बूंद जो काम करती है, वही काम ब्रेन-वॉशिंग में आत्मदर्शन,करता है। सत्य की राह मिला हुआ वैराग्य-सम्पन्न मन वज्र की चोट का काम करता है और यह आत्मदर्शी आदमी केवल वीतरागता का इच्छुक होता है और इस गुलामी रूप संसार से ऊब जाता है, उसे अब सत् का चश्मा लगा है। इस दुनिया में जो रूपी द्रव्य का चित्र-विचित्र विविधता का खेल है, उसमें जो मूल परमाणु है वही उसे दिखता है। अब बाहर के रूपी द्रव्य का अनूठा सौंदर्य उसे मोहित नहीं कर सकता। हीरा हो या पत्थर, सोना हो या कंकड़, उसमें अब कुछ फर्क नहीं पड़ता। देव,मनुष्य, तिर्यंच,नारक अवस्था में जो द्रव्य रूप अविकारी जीव है वही नजर में आने लगता है। उनकी क्षण-भंगुर पर्यायें गौण हो जाती हैं । उसका कुछ मूल्य ही नहीं रहता बस । सभी जीवों में प्रभुत्व का ही दर्शन होने लगता है। सब क्षुद्र संकुचित विचार नष्ट होते हैं, केवल वीतरागता सवार होती है । यह अत्यन्त उन्नत मनोदशा का स्वरूप है । दुनिया की अब कोई-सी भी ताकत उसे अपनी वीतरागता की रुचि से छीन नहीं सकती। केवल एक शुद्ध दशा का मूल्य रह जाता है।
उस आत्मदर्शी को अपनी शुद्ध दशा की खबर हुई है। किंचित वीतरागता में इतने सुख की ताकत, तो जो पूर्ण रूप से इस शुद्ध दशा में रहने के पात्र हुए हैं, जिन्होंने अपना सच्चा रूप प्रकट करने में सिद्धि हासिल की है, बस उनका ही बहुमान रहता है । अब दुनिया की ऋद्धि, सिद्धि, सम्पदा,वैभव कुछ मूल्य नहीं पाती। इसलिए दुनिया को जो बाहरी चमक लुभाती है, वह चमक-दमक अब उसे नहीं लुभाती। देवगति की चमक-दमक से भी अब दृष्टि चकाचौंध नहीं होती। उन सराग परिग्रहधारी देव-देवताओं का कुछ मूल्य नहीं रहता।
अब उनका अनुकरण करने को जी नहीं चाहता । अब उनकी अनुकम्पा करने को जी चाहता है क्योंकि अनाकुल निराकुल सम्पूर्ण सुख के दर्शन होने की हरएक जीव की पात्रता होने पर भी सच्चे सुख के बारे में ये 'जीव' अनभिज्ञ रह गए हैं, जो अनभिज्ञ होते हैं वे ही देवगति के वैभव को इष्ट समझते हैं, जिन देवगति के देवों को अपने परिपूर्ण आनन्दघन, विज्ञानघन स्वरूप की पहचान हुई है वे भी देवगति को तुच्छ ही गिनते हैं और खुद वे ही, केवल पूर्ण दशा जिन्होंने प्राप्त की है ऐसे वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ देव के ही शरण में जाते हैं। आत्मदर्शी जीव किसी भी सरागी परिग्रहधारी देवताओं के सामने अपना सिर नहीं झुकाता । दुनिया की कोई-सी भी ताकत अब उसे
जैन धर्म एवं आचार
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