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________________ मूलगुण इस प्रसंग में आगे वहां उन मूल गुणों का भी उल्लेख किया गया है जिनका परिपालन साधु को जिनदीक्षा स्वीकार करके अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। वे मूलगुण हैं पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांचों इन्द्रियों का निरोध, बालों का लुञ्चन करना, छह आवश्यक, अचेलकता (निर्वस्त्रता), स्नान का परित्याग, भूमि पर सोना, दांतों का न धोना, खड़े रहकर भोजन ग्रहण करना और वह भी एक बार ही करना । इस प्रकार यहां इन २८ मूलगुणों का निर्देश करते हुए आगे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ये श्रमणों के २८ मूलगुण जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये हैं । इनके परिपालन में जो श्रमण प्रमादयुक्त (असावधान) रहता है, वह छेदोपस्थापक होता है।' छेदोपस्थापक होने का स्पष्टीकरण आगे चारित्र भेदों के प्रसंग में किया जाने वाला है । यहां इन मूलगुणों का स्पष्टीकरण संक्षेप में 'मूलाचार' के आधार पर किया जाता है 'मूलगुण' के स्पष्टीकरण में मूलाचार की आ० वसुनन्दी-विरचित आचारवृत्ति में कहा गया है कि 'मूल' शब्द यद्यपि अनेक अर्थों में वर्तमान है, पर यहां उसे 'प्रधान' अर्थ में ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार से 'गुण' शब्द भी अनेक अर्थों में वर्तमान है, पर उसे यहां 'आचरण- विशेष' अर्थ में ग्रहण किया गया है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि साधु के उत्तर गुणों के आधारभूत प्रधान अनुष्ठान को 'मूलगुण' नाम से कहा जाता है। " पांच महाव्रत 1 अहिंसा - पृथिवीकापादि छह काय, पांच इन्द्रियां, चौदह गुण-स्थान, चौदह मार्गगाएं, जातिभेदभूत कुल आयु और जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूतयोनियां, इन सबको जानकर स्थान, शयन, आसन, गमनागमन एवं भोजन आदि के समय प्राणि-हिंसा से रहित होनाइसका नाम 'अहिंसा महाव्रत' है । " सत्य-- राग-द्वेष व मत्सरता आदि के वशीभूत होकर असत्य वचन न बोलना, अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वाला सत्य भाषण भी न करना, तथा सूत्र ( आगम) व उसके अर्थ के व्याख्यान में अयथार्थ निरूपण न करना -- यह सत्य महाव्रत कहलाता है । " अदत्त परिवर्तन (अर्थ) ग्राम, नगर और मार्ग आदि स्थानों में पड़ी हुई गिरी हुई या भूली हुई किसी भी थोड़ी-बहुत वस्तुओं को नहीं ग्रहण करना, तथा जो खेत व गृह आदि दूसरे के अधिकार में हों, उनको भी नहीं ग्रहण करना — इसे 'अदत्त परिवर्जन' या 'अचौर्य महाव्रत' कहा जाता है। ' - ब्रह्मचर्य - वृद्धा, बाला और युवती - इन तीन प्रकार की स्त्रियों को क्रम से माता, पुत्री और बहिन के समान समझकर उनसे दूर रहना, चित्रलिखित स्त्रियों के रूप को देखकर कलुभावन करना तथा स्त्रीकलत्र आदि से निवृत्त होगा, इसे ब्रह्मचर्य महाव्रत कहते हैं। असंग (परिग्रहपरित्याग ) जीब से सम्बद्ध शरीर, मिध्यात्व कोधादि व हास्यादि तथा उससे असम्बद्ध क्षेत्र व गृह-सम्पत्ति आदि, इनका परित्याग करते हुए, संयम व शौच आदि के उपकरणभूत पीछी- कमण्डलु आदि की ओर से भी निर्ममत्व रहना । इसे असंग या परिग्रह-परित्याग महाव्रत कहा जाता है।" - 1 पांच समितियां आगमानुसार जो गमनागमनादिरूप प्रवृत्ति की जाती है, उसे 'समिति' कहते हैं। यह पांच प्रकार की है ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और प्रतिष्ठापना । ईर्या समिति - साधु-प्रयोजन के वश युग-प्रमाण ( चार हाथ ) भूमि को देखकर प्राणियों के संरक्षण में सावधान रहता हुआ जो दिन में प्रासुक मार्ग से गमन करता है, इसे ईर्ष्या समिति कहते हैं। प्रयोजन से यहां शास्त्रश्रवण, तीर्थयात्रा, गुरुवन्दना व भिक्षा ग्रहण आदि अभिप्रेत है, क्योंकि सर्वथा आरम्भ व परिग्रह से रहित साधु के लिए ऐसे ही कुछ धर्मकार्यों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रयोजन नहीं रहता। १. प्रवचनसार, ३ / ८-९ व मूलाचार १/२-३ २. मूलाचार वृत्ति, १/१ ३. वही, १५ नियमसार गाथा ५६ भी द्रष्टव्य है । ५७ ४. वही, १६ ५ वही, १/७ ६. वही, १/८ ५८ ५६ ७. वही, १ / ६; नियमसार गाथा ६० भी द्रष्टव्य है । जैन धर्म एवं आचार Jain Education International " 11 " For Private & Personal Use Only ४६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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