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प्रासुक का अर्थ है जन्तुओं से रहित । जिस मार्ग पर हाथी, घोड़ा व गाय-भैंस आदि का आवागमन चालू हो चुका हो, वह 'प्रासुक' माना जाता है। इस प्रासुक मार्ग से भी दिन में पर्याप्त प्रकाश के हो जाने पर ही गमन करना चाहिए।
भाषा समिति-पिशुनता, हास्य, कठोरता, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और निकृष्ट स्त्रीकथादि रूप वचन को छोड़कर ऐसा निर्दोष वचन बोलना, जो अपने लिए व अन्य प्राणियों के लिए भी हितकर हो ।'
आ० अमृतचन्द्र सूरि ने असत्य वचन के चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें चौथे असत्य के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं-गहित, सावद्य और अप्रिय । इनमें पिशुनता व हास्य से सहित, कठोर, निन्द्य तथा और भी आगम-विरुद्ध जो वचन हो उसे गहित असत्य वचन कहा जाता है। पिशुनता का अर्थ है पीछे (परोक्ष में)व्यक्ति के सत्-असत् दोषों को प्रकट करना । छेदन-भेदन व मारण आदि रूप ऐसे वचनों को, जिनसे जीव-वध आदि पाप-कार्यों में प्रवृत्ति सम्भव हो, सावद्य अनृत वचन कहते हैं । जो वचन अप्रीति, भय, खेद, वैर, शोक व कलह को उत्पन्न करने वाला है ऐसे सन्तापजनक वचन का नाम अप्रिय है। ऐसे असत्य वचन जब गृहस्थ के लिए भी परित्याज्य हैं, तब भला साधु ऐसे वचनों का प्रयोग कैसे कर सकता है ? उसके लिए उनका परित्याग अनिवार्य है।
एषणा समिति छयालीस दोषों से रहित, बुभुक्षा आदि कारणों से सहित, मन-वचन-काय व कृत-कारित-अनुमतरूप नौ कोटियों से विशुद्ध तथा शीत-उष्ण आदि रूप होने पर राग-द्वेष से वजित जो भोजन का ग्रहण किया जाना है, उसे एषणा समिति कहा गया है।
आदान-निक्षेपण समिति-ज्ञान के उपकरण-भूत पुस्तक आदि, संयम के उपकरण-स्वरूप पीछी आदि और शौच के उपकरण-भूत कमण्डलु को तथा अन्य संस्तर आदि को भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना व रखना, इसका नाम आदान-निक्षेपण समिति है।
प्रतिष्ठापना समिति-जन-समुदाय के आवागमन से विहीन एकान्तरूप, जन्तुरहित, दूसरों की दृष्टि के अगोचर, विस्तृत (बिल आदि से रहित) और जहां किसी को विरोध न हो, ऐसी शुद्ध भूमि में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, यह प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है।
पांच प्रकार का इन्द्रिय-निरोध
चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा और स्पर्शन-इन पांचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषय-क्रम से वर्ण, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श की ओर स्वेच्छा से प्रवृत्त न होने देना; यह क्रम से पांच प्रकार का इन्द्रिय-निरोध है। अभिप्राय यह है कि इष्ट व अनिष्ट-पांचों इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष से रहित होकर, उन्हें अपने नियंत्रण में रखना, ये पांच इन्द्रिय-निरोध नामक पांच मूलगुण हैं।"
छह आवश्यक
जो राग-द्वेषादि के वश नहीं होता उसका नाम 'अवश', और उसके अनुष्ठान का नाम आवश्यक है। वे आवश्यक छह हैंसामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
सामायिक-सामायिक का समानार्थक शब्द 'समता' है। जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु और सुख-दुःख आदि में सम (राग-द्वेष से रहित) होना-इसका नाम समता व सामायिक है ।।
सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त गमन (प्रवृत्ति) होता है, उसे 'समय' कहा जाता है, उसी को यथार्थ 'सामायिक' जानना चाहिए । जो उपसर्ग व परीषह को जीत चुका है, भावनाओं व समितियों में सदा उपयोग-युक्त रहता है, तथा यम और नियम के परिपालन में उद्यत रहता है, ऐसा जीव उस सामायिक से परिणत होता है।"
१. मूत्राचारवृति, १/११, नियमसार गाथा ६३ भी द्रष्टव्य है। २. वही, १/१२, " ६२ ३. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, ६१-६६ ४. मूला० १/१५, " ६३ । ५. " १/१६, " ६४
छयालीस दोषों आदि की विशेष जानकारी के लिए 'अनेकान्त' वर्ष २७, कि० ४ में प्रकाशित 'पिण्डशुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार' शीर्षक लेख द्रष्टव्य है । मूलाचार में पिण्ड-शुद्धि' नाम का एक स्वतन्त्र अधिकार () ही है। ६. मूला०,१/१७; नियमसार गा०६५ भी द्रष्टव्य है। ७. वही, १/१६ (आगे गाथा १९-२३ विशेष रूप से द्रष्टव्य है)। ८. वही, १/२४ ६. वही, १/२५ १०. मूला०,७/२३-२८; विशेष जिज्ञासुओं को इस मूलाचार में सामायिक आवश्यक के प्रकरण (७,२१-४६) को देखना चाहिए।
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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