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श्रेष्ठ घोषित किया गया है।
भावलिंग की प्रधानता
__ 'भावप्राभूत' में यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम या प्रधान तो भालिंग है, द्रव्य लिंग को यथार्थ मत समझो; क्योंकि गुण-दोषों का कारणभूत भावलिंग ही है । बाह्य परिग्रह का जो त्याग किया जाता है, वह भाव की विशुद्धि के लिए ही किया जाता है। जो आभ्यन्तर परिग्रह (मिथ्यात्व आदि) से संयुक्त होता है, उसका वह बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल रहता है।
यहां कुछ उदाहरण
इसके स्पष्टीकरण में यहां भावप्राभूत में कुछ पौराणिक उदाहरण भी दिये गए हैं, जो इस प्रकार हैं
१. भगवान् आदिनाथ के पुत्र बाहुबलि देहादि-परिग्रह से निर्ममत्व होकर भी मानकषाय से कलुषित रहने के कारण कितने ही काल तक आतापन योग से स्थित रहे, पर केवल-ज्ञान उन्हें प्राप्त नहीं हुआ।
२. मधुपिंग नामक मुनि देह और आहार आदि के व्यापार से रहित होकर भावी भोगाकांक्षारूप निदान के निमित्त से श्रमणपने को प्राप्त नहीं हुआ।
३. वशिष्ठ मुनि निदान-दोष के वश दुःख को प्राप्त हुआ। चौरासी लाख योनियों के निवास स्थान में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहां पर भाव से रहित श्रमण नहीं रहा है। निर्ग्रन्थ लिंगी भाव से ही होता है, द्रव्यमात्र से -भाव रहित केवल नग्नवेश से-निर्ग्रन्थलिंगी नहीं होता है।
४. बाहु नामक मुनि ने जिन-लिंग (नग्नता) से सहित होते हुए भी आभ्यन्तर दोष के वश समस्त दण्डक नगर को जला डाला, जिसके कारण वह सातवीं पृथिवी के रौरव नामक नारकबिल में जा पड़ा।
५. सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट द्रव्य-श्रमण द्वीपायन मुनि अनन्तसंसारी हुआ।
६. इसके विपरीत, शिवकुमार नाम का भाव-श्रमण (भावी जम्बूस्वामी) युवतिजनों से वेष्टित होता हुआ भी परीतसंसारीअधिक-से-अधिक अर्ध-पुद्गल-परिवर्तन प्रमाण परिमित संसार वाला--हुआ।
७. बारह अंग और चौदह पूर्व स्वरूप समस्त श्रुत को पढ़कर भी भव्यसेन मुनि भाव-श्रामण्य को प्राप्त नहीं हुआ।
८. इसके विपरीत भाव से विशुद्ध शिवभूति नामक मुनि तुषमाष की घोषणा करता हुआ-भेदविज्ञान से विभूषित होकरकेवलज्ञानी हुआ।
श्रमण-दीक्षा
प्रवचनसार के चारित्र-अधिकार में मुमुक्षु भव्य को लक्ष्य करके यह उपदेश किया गया है कि हे भव्य ! यदि तू दुःख से मुक्त होना चाहता है तो पांचों परमेष्ठियों को प्रणाम करके श्रमण धर्म को स्वीकार कर। इसके लिए माता-पिता आदि गुरुजनों के साथ स्त्री-पुत्रादि से पूछकर, उनकी अनुमति प्राप्त कर, तदनुसार उनकी अनुमति प्राप्त हो जाने पर दर्शन-ज्ञानादि पांच आचारों के परिपालक व अन्य अनेक गुणों से विशिष्ट आचार्य की शरण में जाकर, सविनय वन्दना करता हुआ, उनसे जिन-दीक्षा देने की प्रार्थना कर। इस प्रकार उनसे अनुगृहीत होकर मुनिधर्म में दीक्षित होता हुआ दृढ़तापूर्वक यह निश्चय कर कि मैं न तो दूसरों का कोई हूं और न दूसरे मेरे कोई हैं, यहां मेरा अन्य कुछ भी नहीं। इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके बालक के समान निर्विकार दिगम्बर रूप-निर्वस्त्रता को ग्रहण कर ले।
जिनलिंग द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। उनमें तत्काल उत्पन्न हुए बालक के रूप को (नग्नता) धारण करके, जो कैंची या उस्तरे आदि की सहायता के बिना, सिर व दाढ़ी के बालों का लुञ्चन किया जाता है, वह अन्य भी प्रतिक्रिया से रहित शुद्ध 'द्रव्य लिंग' है। वह हिंसा व असत्य आदि पापों से रहित होता है। इसके साथ मूर्छा (ममेदंबुद्धि) से रहित और उपयोग (आत्मपरिणाम) व मन-वचनकायरूप योगों की शुद्धि से संयुक्त जिस लिंग में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती है, वह भावलिंग है, जो अपुनर्भव का कारण है-जन्ममरण-जन्य दुःख से मुक्ति दिलाने वाला है।
१. रत्नकरण्ड,१/३१-३३ २. भावप्राभृत ४४-५३ (कथाएं श्रुतसागरीय टीका में द्रष्टव्य है)। ३. प्रवचनसार, ३/५-६
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आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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