________________
इस गाथा में व्रत, समिति और गुप्ति को व्यवहारचारित्र कहने में हेतु यह है कि इनमें अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति का रूप पाया जाता है। इस तरह इस गाथा से निर्णीत हो जाता है कि जीव पुण्यरूप जीवदया को जब तक पापरूप अदया के साथ करता है तब तक तो उस दया का अन्तर्भाव पुण्य-रूप दया में होता है और वह जीव उक्त पुण्य-रूप जीव-दया को जब पाप-रूप अदया से निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूत दया व्यवहार-धर्म का रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दया से जहाँ एक ओर पुण्यमय प्रवृत्तिरूपता के आधार पर कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है वहां दूसरी ओर उस दया से पापरूप अदया से निवृत्ति रूपता के आधार पर भव्य जीव में कर्मों का संवर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहार-धर्म रूप दया से कर्मों का संवर और निर्जरण होता है, इसकी पुष्टि आचार्य वीरसेन के द्वारा जयधवला के मंगलाचरण की व्याख्या में निर्दिष्ट निम्न वचन से होती है
सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो। अर्थ-शुभ और शुद्ध के रूप में मिश्रित परिणामों से यदि कर्म-क्षय नहीं होता हो, तो कर्मक्षय का होना असंभव हो जायेगा।
आचार्य वीरसेन के बचन में सह-सद्धपरिणामेहि' पद का ग्राह्य अर्थ
आचार्य वीरसेन के वचन के 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पद में सुह और सुद्ध दो शब्द विद्यमान हैं। इनमें से 'सुह' शब्द का अर्थ भव्य जीव की क्रियावती शक्ति के प्रवृत्तिरूप शुभ परिणमन के रूप में और 'सुद्ध' शब्द का अर्थ उस भव्य जीव की क्रियावती शक्ति के अशुभ से निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन के रूप में ग्रहण करना ही युक्त है। ‘सुह' शब्द का अर्थ जीव की भाववती शक्ति के पुण्यकर्म के उदय में होने वाले शुभ परिणाम के रूप में और 'सुद्ध' शब्द का अर्थ उस जीव की भाववती शक्ति के मोहनीय कर्म के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में होने वाले शुद्ध परिणमन के रूप में ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इसी बात को स्पष्ट किया जाता है
जीव की क्रियावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मों के आस्रव और बन्ध के कारण होते हैं, और उसी क्रियावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक उन प्रवृत्ति रूप परिणमनों से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूप में निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्य जीव में कर्मों के संवर और निर्जरण के कारण होते हैं। जीव को भाववती शक्ति के न तो शुभ और अशुभ परिणमन कर्मों के आस्रव और बन्ध के कारण होते हैं, और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मों के संबर और निर्जरण के कारण होते हैं, इसमें यह हेतु है कि जीव की क्रियावती शक्ति का मन, वचन और कायिक सहयोग से जो क्रियारूप परिणमन होता है, उसे योग कहते है ('कायवाङ्मनःकर्म योग:'- त० सू० ६-१) । यह योग यदि जीव की भाववती शक्ति के पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनों से प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीव की भाववती शक्ति के पूर्वोक्त अतत्त्वश्रद्धान अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनों से प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते हैं, ('शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः)।अशुभपरिणामनिवृत्तो योग: अशुभः'-सर्वार्थ सिद्धि ६-३) यह योग ही कर्मों का आस्रव अर्थात् बन्ध का द्वार कहलाता है। ('स आश्रवः' त० सू०६-२)। इस तरह जीव की क्रियावती शक्ति का शुभ और अशुभ योगरूप परिण मन ही कर्मों के आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप बन्ध का कारण सिद्ध होता है।
यद्यपि योग की शुभरूपता और अशुभरूपता का कारण होने से जीव की भाववती शक्ति के तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञान रूप शुभ परिणमनों को व अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुभ परिणमनों को भी कर्मों के आस्रवपूर्वक बन्ध का कारण मानना अयुक्त नहीं है, परन्तु कर्मों के आस्रव और बन्ध का साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशी में रखी हुई तेजाब को भ्रमवश आंख की दवाई समझ रहा है तो भी तब तक वह तेजाब रोगी की आंख को हानि नहीं पहुंचाती है, जब तक वह डाक्टर उस तेजाब को रोगी की आंख में नहीं डालता है। जब डाक्टर उस तेजाब को रोगी की आंख में डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगी की आंख को हानि पहुंचा देती है। इसी तरह आंख की दवाई को आंख की दवाई समझकर भी जब तक डाक्टर उसे रोगी की आंख में नहीं डालता है तब तक वह दवाई उस रोगी की आंख को लाभ नहीं पहुंचाती है। परन्तु,जब डाक्टर उस दवाई को आंख में डालता है, तो तत्काल वह दवाई रोगी की आंख को लाभ पहुंचा देती है। इससे निर्णीत होता है कि जीव की क्रियावती शक्ति का शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही आस्रव और बन्ध का कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीव की भाववती शक्ति का हृदय के सहारे पर होने वाला तत्त्वश्रद्धान रूप शुभ परिणमन या अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमन और जीव की भाववती शक्ति का मस्तिष्क के सहारे पर होने वाला तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिण मन या अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योग की शुभरूपता और अशुभरूपता में कारण होने से परम्परया आस्रव और बन्ध में कारण माने जा सकते हैं, परन्तु आस्रव और बन्ध में साक्षात् कारण तो योग ही होता है।
इसी प्रकार जीव की क्रियावती शक्ति के योग-रूप परिणमन के निरोध को ही कर्म के संवर और निर्जरण में कारण मानना युक्त है ('आस्रवनिरोधः संवर:'-त०सू०६-१) । जीव की भाववती शक्ति के मोहनीयकर्म के यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम में होने वाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनों को संवर और निर्जरा का कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाववती शक्ति के स्वभावभूत शुद्ध परिणमन मोहनीय कर्म के यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होने के कारण संवर. और निर्जरा के कार्य हो जाने से कर्मों के संबर और निर्जरण
जैन धर्म एवं आचार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org