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में कारण सिद्ध नहीं होते हैं । एक बात और ! जब जीव की क्रियावती शक्ति के योगरूप परिणमनों से कर्मों का आस्रव होता है तो कर्मों के संवर और निर्जरण का कारण योग-निरोध को ही मानना युक्त है। यही कारण है कि जीव में गुणस्थानक्रम से जितना-जितना योग का निरोध होता जाता है उस जीव में वहां उतना-उतना कर्मों का संवर नियम से होता जाता है, तथा जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब कर्मों का संवर भी पूर्णरूप से हो जाता है। कर्मों का संवर होने पर बद्ध कर्मों की निर्जरा या तो निषेक-रचना के अनुसार सविपाक रूप में होती है अथवा 'तपसा निर्जरा च' (त० सू० ६-३) के अनुसार क्रियावती शक्ति के परिणमन-स्वरूप तप के बल पर अविपाक रूप में होती है। इसके अतिरिक्त यदि जीव की भाववतीशक्ति के स्वभावभूत शुद्ध परिणमनों को संवर और निर्जरा का कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थान के प्रथम समय में ही भाववती शक्ति के स्वभावभूत परिणमन की शुद्धता का पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गुणस्थानों में सातावेदनीय कर्म का आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूप में बन्ध नहीं होना चाहिए। दूसरे द्वादश गुणस्थान के प्रथम समय में ही भाववती शक्ति के स्वभावभूत परिणमन की शुद्धता का पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती कर्मों का तथा चारों अघाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना चाहिए। परन्तु जब ऐसा होता नहीं है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि आस्रव और बन्ध का मूल कारण योग है, और विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घाती कर्मों की एवं चारों अघाती कर्मों की निर्जरा निषेकक्रम से ही होती है। त्रयोदश गुणस्थान में केवली भगवान् अघाती कर्मों की समान स्थिति का निर्माण करने के लिए जो समुद्'घात करते हैं वह भी उनकी क्रियावती शक्ति का ही कायिक परिणमन है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवला के मंगलाचरण की व्याख्या में निर्दिष्ट आचार्य वीरसेन के उपर्युक्त वचन के अंगभूत "सुह-सुद्धपरिणामेहि' पद से जीव की क्रियावती शक्ति के अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक शुभ में प्रवृत्ति-रूप परिणमनों का अभिप्राय ग्रहण करना ही संगत है। भाववती शक्ति के तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञान रूप शुभ व मोहनीय कर्म के यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में होने वाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनों का अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है।
यहां यह बात भी विचारणीय है कि जयधवला के उक्त वचन के 'सुह-सुद्ध परिणामेहिं' पद के अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द का अर्थ यदि जीव की भाववतीशक्ति के मोहनीय कर्म के यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम में विकास को प्राप्त शुद्ध परिणमन स्वरूप निश्चयधर्म के रूप में स्वीकार किया जाये तो उस पद के अन्तर्गत 'सुह' शब्द का अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीव की भाववतीशक्ति के तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञान रूप शुभ परिणमन के रूप में तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, इसलिए उस 'सुह' शब्द का अर्थ यदि जीव की क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया जाये तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कर्मों के आस्रव
और बन्ध का ही कारण होती है । अतः उस 'सुह' शब्द का अर्थ जीव की क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति के रूप में ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकार के व्यवहार-धर्म के पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप अंश से जहां कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है, वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप अंश से कर्मों का संवर और निर्जरण भी होता है। परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेने पर भी जीव की भाववती शक्ति के स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणमन को पूर्वोक्त प्रकार कर्मों के संवर और निर्जरण का कारण सिद्ध न होने से 'सुद्ध' शब्द का अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार जयधवला के 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पद के अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द के निरर्थक होने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । अतः उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' इस सम्पूर्ण पद का अर्थ जीव की क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति के रूप में ही ग्राह्य हो सकता है।
यदि यह कहा जाय कि जीव को मोक्ष की प्राप्ति उसकी भाववती शक्ति का शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म के रूप में परिणमन होने पर ही होती है, इस लिए 'सुह-सुद्धपरिणामेहि पद के अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द निरर्थक नहीं है तो इस बात को स्वीकार करने में यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करने पर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीव की भाववती शक्ति के स्वभाव भूत शुद्ध परिणमन के होने पर होना एक बात है और उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमन को कर्मक्षय का कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो द्वादशगुणस्थानवी जीव का वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभाव का ही अंश है जो मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय होने पर ही प्रकट होता है।
अन्त में एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पद के अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द का जीव की भाववती शक्ति का स्वभावभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करने पर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थान के प्रथम समय में शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म का पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती कमों का एवं चारों अघाती कर्मों के एक साथ क्षय होने की प्रसक्ति होती है। साथ ही यह समस्या भी उपस्थित होती है कि जीव की भाववती शक्ति के स्वभावभूत शुद्ध परिणमन के विकास का प्रारम्भ जब प्रथम गुणस्थान के अन्त समय में मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप चार, इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थान के प्रथम समय में होता है तो ऐसी स्थिति में उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमन को कमों के संवर और निर्जरण का कारण कैसे माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं
आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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