SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाने वाली पुण्यरूप क्रिया । इनमें से कर्तव्यवश की जाने वाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्यक्रिया है। ऐसी पुण्यक्रिया से ही परोपकार की सिद्धि होती है । इसके अतिरिक्त वीतरागी देव की आराधना वीतरागता के पोषक शास्त्रों का पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागता के मार्ग पर आरूढ़ गुरुओं की सेवा-भक्ति तथा स्वालम्बन शक्ति को जाग्रत् करने वाले व्रताचरण और तपश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओं में अन्तर्भूत होते हैं। ___ यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त आरम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदि के वशीभूत होकर किये जाते हैं तथा पूण्य भी अहंकार आदि के वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप ही जानना चाहिए। संसारी जीव की क्रियावती शक्ति के दया और अदया-रूप परिणमनों का विवेचन ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीव की भाववतीशक्ति का चारित्रमोहनीय कर्म के भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायों की क्रोध प्रकृतियों के उदय में अदयारूप विभाव-परिणमन होता है, और उन्हीं क्रोधप्रकृतियों के यथास्थान, यथासंभव रूप में होने वाले उपशम, क्षय या क्षयोपशम में दयारूप स्वभाव-परिणमन होता है। यहां जीव की क्रियावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनों के विषय में यह बतलाया जा रहा है कि जीव द्वारा परहित की भावना से की जाने वाली क्रियाएँ पुण्य के रूप में दया कहलाती हैं और जीव द्वारा पर के अहित की भावना से की जाने वाली क्रियाएँ संकल्पीपाप के रूप में अदया कहलाती हैं। इनके अतिरिक्त जीव की जिन क्रियाओं में पर के अहित की भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहित की भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे पर का अहित होना निश्चित हो, वे क्रियाएँ आरम्भीपाप के रूप में अदया कहलाती हैं । जैसे-एक व्यक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्ति पर आक्रमण करना संकल्पीपापरूप अदया है, परन्तु उस दूसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षा के लिए उस आक्रामक व्यक्ति पर प्रत्याक्रमण करना आरम्भीपापरूप अदया है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि जीव की पुण्यमय क्रिया संकल्पीपापमय क्रिया के साथ भी संभव है और आरम्भीपापमय क्रिया के साथ भी संभव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओं में जीव की प्रवृत्ति एक साथ नहीं हो सकती है, क्योंकि संकल्पीपापरूप क्रियाओं के साथ जो आरम्भीपापरूप क्रियाएँ देखने में आती हैं उन्हें वास्तव में संकल्पी पापरूप क्रियाएँ ही मानना युक्तिसंगत है। इस तरह संकल्पी पापरूप क्रियाओं से सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरम्भी पापरूप क्रियाएँ की जाती हैं, उन्हें ही वास्तविक आरम्भीपापरूप क्रियाएँ समझना चाहिए। व्यवहारधर्मरूप दया का विश्लेषण और कार्य ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओं के साथ परहित की भावना से की जाने वाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ क्रियाएं पुण्य के रूप में दया कहलाती हैं और वे कर्मों के आस्रव और बन्ध का कारण होती हैं, परन्तु भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों द्वारा कम से कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओं से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूप में होने वाली सर्वथा निवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दया के रूप में पुण्यमय शुभ क्रियाएं की जाने लगती हैं वे क्रियाएं ही व्यवहारधर्मरूप दया कहलाती हैं। इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओं से निवृत्तिपूर्वक की जाने वाली पुण्यभूत दया भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रयोग्य लब्धियों के विकास का कारण होती है, तथा भव्य जीव में तो वह पुण्यरूप दया इन लब्धियों के विकास के साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धि के विकास का कारण होती है। उक्त करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्म के भेद दर्शनमोहनीय कर्म की यथासंभव रूप में विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिरूपतीन व मोहनीयकर्म के भेद चारित्रमोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार-इस तरह सात प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम में कारण होती हैं। इस तरह उक्त व्यवहारधर्म रूप दया कर्मों के संवर और निर्जरण में कारण सिद्ध हो जाती हैं। इतनी बात अवश्य है कि उस व्यवहारधर्म रूप दया में जितना पुण्यमय दयारूप प्रवृत्ति का अंश विद्यमान रहता है वह तो कर्मों के आस्रव और बन्ध का ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्म रूप दया का संकल्पीपापमय अदयारूप प्रवृत्ति से होने वाली सर्वथा निवृत्ति का अंश ही कर्मों के संवर और निर्जरण का कारण होता है। द्रव्यसंग्रहग्रन्थ की गाथा ४५ में जो व्यवहार-चारित्र का लक्षण निर्धारित किया गया है, उसके आधार पर व्यवहारधर्म रूप दया का स्वरूप स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है । वह गाथा निम्न प्रकार है असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । बदसमिदिगुत्तिरूवं बवहारणया दु जिणभणियं ॥४५॥ अर्थ-अशुभ से निवृत्तिपूर्वक होने वाली शुभ प्रवृत्ति को जिन भगवान् ने व्यवहार-चारित्र कहा है। ऐसा व्यवहार-चारित्र व्रत, समिति और गुप्तिरूप होता है। ४० आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy